रांची:झारखंड विधानसभा चुनाव में दलबदलुओं की भरमार ने राजनीति के रंगमंच को एक बार फिर से सुर्खियों में ला दिया है। झामुमो और भाजपा दोनों ही पार्टियों ने अपने-अपने खेमे में दलबदलुओं को प्राथमिकता देकर एक नया तमाशा पेश किया है। अब तो ऐसा लग रहा है कि राजनीति में निष्ठा और पार्टी वफादारी का कोई मोल नहीं रहा, बस सभी को अपने स्वार्थ की दुकान सजानी है।
दलबदलुओं का यह खेल अब तो एक हास्य का विषय बन चुका है। एक समय जो नेता अपनी पार्टी के प्रति कस्मे खाते थे, वही अब अपनी पुरानी पार्टी को “गुड बाय” कहकर दूसरी पार्टियों के दामन में झूलते नजर आ रहे हैं। जैसे कोई बौद्धिक चूहा अपने ठिकाने को छोड़कर चॉकलेट के दाने की तलाश में निकला हो।
भाजपा ने झामुमो से आए चंपाई सोरेन, बाबूलाल सोरेन, लोबिन हेंब्रम और सीता सोरेन जैसे नेताओं को न केवल अपने में समाहित किया, बल्कि उन्हें चुनावी टिकट भी थमा दिया। अब ये नेता पार्टी बदलने की कला में माहिर हो गए हैं—”बदलना है तो ऐसा बदलो कि लोग पहचान ही न सकें!” इस राजनीतिक करतव में यह भी दिखता है कि पार्टी का स्थायी चेहरा अब एक बेमिशाल चित्र की तरह बन गया है।
नेताओं की निष्ठा अब उस समय तक होती है, जब तक उन्हें अपनी लाभ की उम्मीद होती है। जैसे किसी छोटे बच्चे का बर्तन, जो तब तक चमकता है, जब तक उसमें कुछ नया न डाला जाए।
इसी बीच, समाजवादी पार्टी जैसे दल भी इन दलबदलुओं के लिए सुरक्षित ठिकाना बन गए हैं। अब तो ऐसा लगता है कि राजनीतिक दलों में विचारधारा की जगह स्वार्थ ने ले ली है। यह देखकर तो ऐसा लगता है कि सभी नेता अब केवल अपने-अपने ठिकाने को बचाने के लिए दौड़ रहे हैं, जैसे “फिल्म के क्लाइमेक्स में सभी पात्रों की धड़कन बढ़ जाती है।
इस प्रकार, दलबदलुओं की यह राजनीति झारखंड में एक नई राजनीतिक संस्कृति को जन्म दे रही है। क्या आने वाले चुनावों में यह दलबदलुओं का दल फिर से राजनीति के रंगमंच पर अपनी धाक जमा पाएगा? या जनता इनकी चालाकियों को पहचानकर इन्हें अस्वीकार कर देगी? समय ही बताएगा, लेकिन इतना तय है कि यह राजनीतिक नाटक अभी खत्म नहीं हुआ है। इसका अन्य शिर्शक का सुझाव दे