Monday, August 4, 2025

Related Posts

 कौन थे शिबू सोरेन के ‘गुरु’? दिशोम गुरु की राजनीतिक शिक्षा और प्रेरणा की यात्रा

रांची: झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री, जननायक और झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के संस्थापक शिबू सोरेन का आज देहांत हो गया। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने सोशल मीडिया पोस्ट के माध्यम से उनके निधन की जानकारी दी और उन्हें ‘दिशोम गुरु’ यानी ‘जनजातीयों के गुरु’ कहकर भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। लेकिन यह सवाल कई लोगों के मन में आता है कि आखिरकार दिशोम गुरु को राजनीति का पहला पाठ किसने पढ़ाया? उनके गुरु कौन थे? इस विशेष रिपोर्ट में हम इसी सवाल का जवाब तलाशते हैं।

पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का निधन
पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का निधन

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा: एक शिक्षक ‘परमेश्वर’ से शुरू हुई सीखने की यात्रा

शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को संथाल परगना के निमिया गांव (दुमका) में हुआ था। उनकी आरंभिक शिक्षा गांव के ही स्कूल में हुई।
लेखक अनुज कुमार सिन्हा ने अपने शोध में उल्लेख किया है कि शिबू सोरेन जब बचपन की यादों में लौटते थे, तो बड़े स्नेह से अपने पहले शिक्षक परमेश्वर बाबू को याद करते थे।

“हां, एक शिक्षक थे परमेश्वर बाबू… पढ़ाते थे, डांटते भी थे… लेकिन उन्होंने ही हमें किताब की इज्जत करना सिखाया।”

ग्रामीण स्कूल, सीमित संसाधन, और संथाली समाज की चुनौतियों के बीच, परमेश्वर बाबू ने उन्हें अनुशासन, समर्पण और प्राथमिक शिक्षा की नींव दी — यही गुरु-शिष्य संबंध आगे चलकर दिशोम गुरु की छवि में बदल गया।

पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का निधन
पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का निधन

राजनीतिक चेतना: कम्युनिस्ट नेता मजरूल हसन खान बने प्रेरक

वर्ष 1967-69 के आसपास जब शिबू सोरेन युवा थे और कोयलांचल तथा आदिवासी इलाकों में जमींदारी और शोषण के खिलाफ आवाजें उठने लगी थीं, तब वे रामगढ़ में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के नेता मजरूल हसन खान के संपर्क में आए।

मजरूल हसन खान एक जुझारू जननेता थे और उन्होंने शिबू सोरेन को पहली बार मंच, भाषण, धरना, विरोध और संगठन निर्माण की ताकत से परिचित कराया।
उन्होंने झारखंड के भूमिहीनों, खनन मजदूरों और गरीब तबके के लिए लड़ाई लड़ी और शिबू सोरेन को उस लड़ाई में शामिल किया।

पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का निधन
पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का निधन

शिबू पहली बार तब सामने आए जब मजरूल साहब के साथ आंदोलन में कंधे से कंधा मिलाकर नारे लगा रहे थे।

मजरूल हसन खान की हत्या 1972 के आसपास पटना में कर दी गई, लेकिन उनके विचार और आंदोलनी परंपरा शिबू सोरेन की राजनीति में हमेशा जीवित रही।

लोकतांत्रिक दिशा: विनोद बिहारी महतो ने दिखाई संवैधानिक राजनीति की राह

1970 के दशक में जब झारखंड राज्य आंदोलन संगठित रूप ले रहा था, तब शिबू सोरेन की मुलाकात विनोद बिहारी महतो से हुई।
विनोद बाबू एक शिक्षाविद् और राजनीतिक चिंतक थे, जो मानते थे कि अलग राज्य की मांग को कानूनी, संवैधानिक और लोकतांत्रिक रास्ते से उठाया जाना चाहिए।

उन्होंने शिबू सोरेन को सिखाया कि “जनआंदोलन को राजनीतिक ताकत में बदले बिना स्थायी परिवर्तन नहीं लाया जा सकता।”
इसी विचारधारा की नींव पर झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) को पुनर्गठित किया गया और शिबू सोरेन को उसका सर्वोच्च नेता बनाया गया।

पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का निधन
पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का निधन

 जन शिक्षक बने ‘गुरुजी’: समाज को पढ़ाने वाले स्वयं बने गुरुवर

शिबू सोरेन ने खुद को कभी पारंपरिक राजनेता के रूप में पेश नहीं किया।
वे गांव-गांव जाकर लोगों को कानून, अधिकार, जमीन, शिक्षा और संगठित होने की ताकत सिखाते थे।
वे लालटेन की रोशनी में ग्रामीणों को पढ़ाते, अपने अनुभव बांटते और सामाजिक शोषण से लड़ने के तरीके बताते।

इसी सेवा और शिक्षण के कारण उन्हें आदिवासी समाज ने ‘गुरुजी’ का दर्जा दिया — एक ऐसा सम्मान जो किसी पद या चुनाव से नहीं, बल्कि जीवन की साधना से मिलता है।

कौन थे शिबू सोरेन के ‘गुरु’? — एक सारांश तालिका

जीवन कालगुरु/प्रेरकभूमिका और प्रभाव
बचपनपरमेश्वर बाबूप्राथमिक शिक्षा, नैतिक अनुशासन, ज्ञान की नींव
युवावस्थामजरूल हसन खान (CPI)आंदोलन की सीख, भाषण कला, जनता से संवाद
राजनैतिक परिपक्वताविनोद बिहारी महतोसंवैधानिक मार्गदर्शन, लोकतांत्रिक रणनीति, संगठन निर्माण
समाजसेवास्वयं शिबू सोरेनजनशिक्षक, संगठनकर्ता, ‘गुरुजी’ की सामाजिक भूमिका

दिशोम गुरु का जाना: गुरु पूर्णिमा के बाद एक युग का अवसान

शिबू सोरेन का निधन एक राजनीतिक युग के अंत जैसा है, लेकिन उनका जीवन उन गुरुओं की प्रेरणा से बना जिन्होंने उन्हें पढ़ाया, सींचा और संघर्ष के मैदान में उतारा।

 दिशोम गुरु के ‘गुरु’ भी थे — और यही बनाता है उन्हें अद्वितीय

आज जब हम उन्हें दिशोम गुरु के नाम से याद करते हैं, तो यह मान लेना जरूरी है कि वे खुद भी किसी परंपरा के उत्तराधिकारी थे — अपने शिक्षकों के, अपने मार्गदर्शकों के, और उस संघर्षशील आदिवासी समाज के जिन्होंने उन्हें ‘गुरुजी’ कहा।


127,000FansLike
22,000FollowersFollow
587FollowersFollow
562,000SubscribersSubscribe