74 के आंदोलनकारी की विधवा को पेंशन की तलाश

Nawada- जिस चौहतर का सत्ता विरोधी आंदोलन के लहर पर सवार होकर नीतीश से लेकर लालू तक सत्ता

के शिखर तक पहुंच गये, सुशील मोदी विपक्ष से लेकर सत्ता तक का चेहरा बने रहे.

उसी 74 आंदोलन की एक विधवा आज एक अदद पेंशन के लिए दर-दर की ठोकर की खा रही है.

बड़ी बात यह रही कि जिस कांग्रेस के तानाशाही को उखाड़ने की ये कसमें खाते-खाते, बदली परिस्थितियों ने कइयों

ने उसी कांग्रेस का हमसफर बनना स्वीकार कर लिया, जिस पर देश में तानाशाही थोपने का गंभीर आरोप लगा था.

इसी 77 आंदोलन की एक सशक्त आवाज थें नवादा जिले के सुरेश भट्ट.

सुरेश भट्ट ने अपनी नई नवली पत्नी को तन्हा छोड़ तानाशाही के खिलाफ अपने को आवाम की आवाज बना दिया था.

बच्चे घर में भूख से बिलख रहे थें. पत्नी सरस्वती भट्ट अपने और अपने बच्चों के लिए दो जुन की रोटी के जुगाड़

में मेहनत मजदूरी कर रही थी. उपर से सुरेश भट्ट की खोज में हर दूसरे दिन पुलिस का घर पर दस्तक.

आखिरकार सत्ता बदला, सत्ता का समीकरण बदला, पर नहीं बदली सुरेश भट्ट की तकदीर, सत्ता मिलते ही

सामाजिक न्याय के ढिंढोरचियों ने अपना चेहरा बदल लिया. किसी ने भी सुरेश भट्ट की खबर लेने की जहमत नहीं उठायी.

किसी प्रकार दिन बितता गया, लम्हे बितते गए, आखिर कार हालात के चट्टानों से टकराते-टकराते

कर सुरेश भट्ट ने अपना दम तोड़ दिया.

वर्ष 2012 में उनकी दुखद मौत हो गयी. अपने पीछे छोड़ गए अपनी पत्नी और भूख से बिलखते बच्चे,

आज भी विधवा पत्नी सरस्वती भट्ट का जद्दोजहद कम नहीं हुआ.

सरस्वती भट्ट कहती है कि उस 74 के आंदोलन में तब की कांग्रसी सरकार ने सुरेश भट्ट को बेड़िया पहनाकर जेल में रखा,

जेल में अलग सेल में रखा गया.

जब बाद के दिनों में सरकार बदली, सामाजिक न्याय के मशालचियों की सरकार बनी तब भी किसी ने सुरेश भट्ट की कोई खोज

नहीं ली.

सत्ता के नव निर्मित समीकरण में वे फिट नहीं बैठें, आखिरकार उन्होने अपना दम तोड़ दिया.

सरस्वती भट्ट एक अदद पेंशन के लिए जिला मुख्यालय से लेकर राजधानी पटना तक अधिकारियों की दौड़ लगा रही है,

लालू ,नीतीश से लेकर सुशील मोदी का दरवाजा खटखटा रही है.

लेकिन लगता है सत्ता तो बदला लेकिन सत्ता की तासीर नहीं बदली.

रिपोर्ट-अमित शर्मा

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