किस्को/लोहरदगा: आजादी के अमृत महोत्सव पर अपना भारत देश विकास के मामले में पूरी दुनिया में खुद का लोहा मनवाने का कार्य कर दिखाया है. अनेकों उपलब्धियां हमारे देश के पास अपनी काबिलियत और बेहतर क्रियान्वयन के बदौलत हासिल हुई है. लेकिन देश के कई ऐसे इलाके हैं, जहां के लोग आज भी खुद को भेड़ बकरी और जंगली जानवरों की तरह जीवन व्यतीत करने को मजबूर और लाचार हैं.
हम बात कर रहे हैं डहरबाटी गांव की. हमारे गांव में पहुंचते ही लोग एक पल के लिए भावुक और स्तब्ध हो गये, धीरे-धीरे कुछ लोग सामने आये जब बताया कि आपकी समस्याओं को सुनने और इसके निराकरण हेतु समाचार तैयार करने के लिए आया हुं, पत्रकार हुं. तब गांव वालों के द्वारा अपने रीति-रिवाज के साथ स्वागत किया.
बैठने के लिए जंगल से लाकर बनाई हुई खिजूर की चटाई दिया और सखुआ पत्तल के दोना में चुड़ा और बिस्किट खाने के लिए दिया गया. साथ ही नदी से लाया हुआ दूषित पानी पीने के लिए दिया गया और जोहार शब्द के साथ झारखंड की सभ्यता को प्रस्तुत किया गया. इस बीच उनके द्वारा दी गई भेंट को स्वीकार करते हुए थोड़ी देर के बाद गांव का भ्रमण करने पर काफी अचंभित करने वाला दृश्य दिखाई दिया. जिसने मन को विचलित कर दिया.
लोहरदगा जिला अंतर्गत किस्को प्रखंड क्षेत्र के अति सुदूरवर्ती और घोर नक्सल प्रभावित ग्राम पंचायत पाखर के डहरबाटी गांव के सैकड़ों नगेसिया समाज के लोगों को अपनी बदकिस्मती और नेता और प्रशासनिक तंत्र के आश्वासन के घेरे में दबकर भेड़ बकरी और जंगली जानवरों की तरह डर और खौफ के साए में जिंदगी गुजारना पड़ रहा है.
70 दशक बीत जाने के बाद भी केंद्र और राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं से गांव के लोग आज भी अछूते हैं. इन्हें न तो आवागमन हेतु सड़क नसीब हुआ है और न ही बीमारी से दम तोड़ने वालों लोगों के इलाज हेतु स्वास्थ्य सुविधाएं बहाल की गई है. सबसे बड़ी बात तो यह है कि गांव में पेयजल की उपलब्धता हेतु जलमीनार, चापानल, कुप, डांड़ी, चुआं जैसे पेयजल श्रोत भी महज एक सपना बना हुआ है.
रिपोर्टः दानिश रज़ा