Gumla में साहित्य महोत्सव का भव्य शुभारंभ, जनजातीय भाषाओं और संस्कृति के संरक्षण पर जोर…

Gumla : जिला प्रशासन के तत्वावधान में द्वितीय गुमला साहित्य महोत्सव का भव्य शुभारंभ आज अपराह्न 4:00 बजे किया गया। इस आयोजन में जिले के विभिन्न उच्च विद्यालयों के छात्र-छात्राओं सहित बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी नागरिकों ने सहभागिता दर्ज की। महोत्सव में स्थापित सेल्फी पॉइंट्स नागरिकों के आकर्षण का केंद्र बने, वहीं साहित्य प्रेमियों द्वारा विभिन्न पठन-पाठन सामग्री एवं पुस्तकों का क्रय भी किया गया।

Gumla : साहित्यिक विमर्श एवं संवाद

महोत्सव के प्रथम सत्र में डॉ. नारायण भगत एवं डॉ. प्रेम चंद्र उरांव द्वारा कुड़ुख एवं उरांव भाषा के संरक्षण एवं संवर्धन विषय पर विस्तृत परिचर्चा की गई। डॉ. नारायण भगत ने कुड़ुख भाषा की सांस्कृतिक महत्ता को रेखांकित करते हुए कहा कि गुमला का मांदर केवल एक वाद्य यंत्र नहीं, बल्कि भाषा, लोककथाओं और परंपराओं को जीवंत रखने का माध्यम है। उन्होंने इस तथ्य पर बल दिया कि झारखंड की प्रमुख जनजातीय भाषाओं – उरांव, मुंडा, हो और संथाली को न केवल संरक्षित करने की आवश्यकता है, बल्कि इन भाषाओं में साहित्य सृजन को भी बढ़ावा देना होगा।

नीलोत्पल मृणाल की प्रस्तुति ने बांधा समां, “भाषा तभी बचेगी जब मिलेगा रोजगार”

इस दौरान नागरिकों द्वारा यह विचार व्यक्त किया गया कि वर्तमान में कुड़ुख भाषा का मौखिक प्रयोग कम होता जा रहा है, जिससे यह विलुप्ति के कगार पर है। इस संदर्भ में विशेषज्ञों ने आश्वस्त किया कि शोध एवं लेखन कार्यों के माध्यम से इस भाषा को सशक्त करने के प्रयास किए जा रहे हैं। वर्तमान में 15 शोधकर्ताओं द्वारा इस दिशा में कार्य किया जा रहा है, तथा कई अप्रकाशित साहित्य को प्रकाशन हेतु तैयार किया जा रहा है।

छात्र-छात्राओं द्वारा सोहराय पेंटिंग के महत्व के बारे में भी पूछा गया, जिसमें यह बताया गया कि मवेशियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु यह कला विकसित हुई है। इसी क्रम में यह भी उल्लेख किया गया कि “जहां-जहां मांदर गया, वहां-वहां कुड़ुख भाषा की यात्रा हुई”, जो इस भाषा की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक समृद्धि को दर्शाता है।

द्वितीय सत्र–नीलोत्पल मृणाल की प्रस्तुति

महोत्सव के द्वितीय सत्र में प्रसिद्ध साहित्यकार एवं सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर नीलोत्पल मृणाल ने अपनी ओजस्वी प्रस्तुति से साहित्यिक संवाद को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। उन्होंने अपने विशिष्ट हास्य-व्यंग्य शैली में विभिन्न साहित्यिक संदर्भ प्रस्तुत किए, जिससे उपस्थित जनसमुदाय विशेष रूप से युवा एवं वरिष्ठ नागरिक प्रभावित हुए। उन्होंने कहा कि “भाषा तभी जीवित रह सकती है, जब उसमें रोजगार के अवसर उपलब्ध हों।” उन्होंने झारखंड की जनजातीय भाषाओं में प्रतिष्ठित नौकरियों एवं रोजगार के सृजन की आवश्यकता पर बल दिया।

“जहां-जहां मांदर गया, वहां-वहां कुड़ुख भाषा की यात्रा हुई”–लोकसंस्कृति के संरक्षण पर हुआ विचार विमर्श

अपने साहित्यिक सफर पर चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि वे पूर्व में सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, किंतु साहित्य के प्रति उनकी रुचि ने उन्हें इस दिशा में अग्रसर किया। उन्होंने इस अवसर पर कई कविताएं एवं गीत प्रस्तुत किए, जिनमें “उस दौर का जादू कैसे जाने ये रील बनाने वाले लड़के”, “पुरखों के तीज-त्योहारों को बचाए रखना,दुनिया ऐसी हुआ करती थी”,”थोड़ा सा नदी का पानी, मुट्ठी भर रेत रखलो”,”कहां गया गया मेरा दिन वो सलोना रे” तथा “एक नौकरी के चक्कर में देखो सिकंदर हार गया”, विशेष रूप से सराही गईं।

उन्होंने कहा कि “मोबाइल किसी भी दौर में किताब का विकल्प नहीं हो सकता, क्योंकि किताब वटवृक्ष के समान होती है।” उनकी प्रस्तुतियों के पश्चात नागरिकों ने उनसे विभिन्न साहित्यिक एवं सामाजिक विषयों पर संवाद भी किया।उन्होंने जिला प्रशासन के इस आयोजन की सफलता पर हर्ष व्यक्त किया एवं नागरिकों से अपील की कि वे अपनी मातृभाषा एवं लोकसंस्कृति के संरक्षण हेतु सक्रिय भूमिका निभाएं।

अमित कुमार की रिपोर्ट–

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