एक वक्त था जब नक्सलवाद झारखंड की कला-संस्कृति और खुबसूरत मौसम पर एक कलंक के रूप में विद्यमान था. जंगल पहाड़ से घीरे इस राज्य में नक्सलवाद ने अपनी जड़े जमा कर विकास को रोके रखा था. नक्सलवाद प्रभावित अधिकतर इलाके आदिवासी बहुल थे यहाँ जीवनयापन की बुनियादी सुविधाएँ तक उपलब्ध नहीं थी, यहाँ न सड़कें थीं, न पीने के लिये पानी की व्यवस्था, न शिक्षा एवं स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएँ और न ही रोज़गार के अवसर. इन्ही परिस्थियों का फायदा उठा कर नक्सली झारखंड का काला अध्याय गढ़ रहे थे.
नक्सलवाद आखिर है क्या, विचारकों का एक वर्ग जहाँ इसे आतंकवाद जैसी गतिविधियों से जोड़कर इसे देश की आतंरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ी चुनौती मानता है तो दूसरा वर्ग इसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विषमताओं एवं दमन-शोषण की पीड़ा से उपजा एक स्वतः स्फूर्त विद्रोह समझकर इसका पक्षपोषण करता है. परंतु इसकी जड़ों में कही न कहीं ज़मींदारों द्वारा छोटे किसानों पर किये जा रहे उत्पीड़न और विकास के आभाव में जागृत हुआ जन असंतोष था. पंचायती राज व्यवस्था आने के पहले सरकार द्वारा जनहित के लिये बनने वाली योजनाओं के निर्माण एवं उनके क्रियान्वयन में गंभीरता, निष्ठा व पारदर्शिता का अभाव रहता था. जिससे वंचितों को भड़काने और नक्सलियों की नई पौध तैयार करने के लिये इन नक्सलियों को अच्छा बहाना मिल जाता था.
पंचायती राज विशेषज्ञ, वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक डॉ विष्णु राजगढ़िया का भी कहना है, “किसी भी जन असंतोष का कारण होता है – विकास नहीं मिलना, लोगों की बात नहीं सुनी जाना, उनकी भागीदारी नहीं होना, पदाधिकारियों की मनमानी और लुट खसोट. विकास की स्थिति न हो तो लोगों में असंतोष होता है. यही जन असंतोष नक्सलवाद और उग्रवाद जैसे आन्दोलन का कारक होता है. झारखंड में जब पंचायती राज व्यवस्था आयी तो उसने लोगों को आत्मनिर्णय लेने का अवसर दिया, शासन और प्रशासन में लोगों की भागीदारी बढ़ी, लोगों को विकास योजनाओं को स्वयं बनाने का अवसर प्राप्त हुआ. इस प्रकार जब लोगों की बातें सुनी जाने लगीं और लोग विकास की ओर अग्रसर हुए तो उनका असंतोष कम होता गया.”
पंचायती राज की स्वशासन व्यवस्था ने ग्रामीणों में सरकार और लोकतंत्र के प्रति विश्वास की पुनर्स्थापना की और इसी के परिणामतः लोगों ने नक्लवाद के खिलाफ आवाज उठाने में सरकार की मदद की.
नक्सलियों के गढ़ और मशहूर नक्सल कुंदन पाहन के इलाके तमाड़ जिला अंतर्गत सरगादा पंचायत के पूर्व मुखिया महावीर जी, जो कि झारखंड में पंचायतों के गठन काल से ही पंचायती राज संस्थान में जन प्रतिनिधि के रूप में जुड़े हैं, का कहना है शुरुआत में नक्सली वैसे ही इलाकों को अपना टारगेट बनाते थे जहाँ विकास नहीं हुआ था और लोगों का सरकार पर से विश्वास कम हो गया था. नक्सली गाँव में इस प्रकार घुलमिलकर रहते थे कि उनकी पहचान कर पाना मुश्किल होता था. परंतु जब से पंचायती राज व्यवस्था आयी और ग्राम सभाएं होने लगीं तब लोगों अपनी भागीदारी का महत्व समझ आया और उनमें विकास की उम्मीद जगी तब से लोगों ने धीरे-धीरे इसका विरोध करना शुरू किया. पंचायत के प्रधान, मुखिया आदि के सहयोग से जो लोग गाँव में सक्रीय रूप से काम करते थे उनलोगों ने पुलिस प्रशासन की मुहीम में गुप्तचर बनाकर सहयोग किया.
ग्रामीण एस पी नौसाद आलम ने बताया, झारखंड से नक्सलवाद को ख़त्म करने में पंचायती राज व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण कदम रहा है. जब नक्सलवाद अपने चरम पर था तब इसके खात्मे के लिए पुलिस ने पंचायतों के प्रतिनिधियों के साथ मिलकर मुहीम चलायी थी. जिसके लिए गाँव वालों के साथ बैठक कर के उन्हें नक्सलियों की खबर देने के लिए प्रेरित किया जाता था. ऐसी कई पंचायतें हैं जहाँ के प्रधान और मुखिया ने सहयोग किया. इस मुहीम के तहत गाँव के ही किसी सक्रीय व्यक्ति को गुप्तचर बना कर एसपीओ (स्पेशल पुलिस ऑफिसर) के पद पर मानदेय दे कर रखा जाता था. ये एसपीओ नक्सलियों के पलायन, बैठक और मूवमेंट की गुप्त खबर पुलिस को दिया करते थे. उन्होंने आगे बताया, जब वे बुंडू के डीएसपी थे तब वो नक्सलवादियों के लिए चलाई जा रही पुनर्वास निति का एक हिस्सा थे. पुनर्वास निति और नयी दिशाएँ योजना के तहत मशहूर नक्सल कुंदन पाहन सरेंडर के बाद ओपन जेल में रह रहा है और एक नई दिशा और सोच के साथ जी रहा है.
वहीं गुमला जिले के पालकोट प्रखंड अंतर्गत कोलेंग पंचायत की मुखिया सुषमा केरकेट्टा बताती हैं, नक्सली मुख्यतः आदिवासी बहुल पंचायतों में अपना अड्डा जमाते थे क्यूंकि वहां विकास की लहर नहीं पहुंची थी. झारखंड में जब पहली पारी का पंचायत चुनाव चल रहा था तब नक्सलवाद अपने चरम पर था. प्रतिदिन नक्सलियों की धमकी मिलती थी, पर ग्रामीणों ने भी मेरा बहुत साथ दिया. पंचायती राज व्यवस्था द्वारा गाँव-गाँव, टोले-टोले में आई विकास की लहर ने ही नक्सलवाद के खिलाफ लोगों को जागरुक करने का काम किया.
पंचायतों के द्वारा उपजा जन संतोष और पुलिस प्रशासन एवं सरकार की पुनर्वास निति और नई दिशाएं जैसी योजनाओं ने ना केवल झारखंड से नक्सलवाद को खत्म किया है बल्कि नक्सलियों को भी जीवन के नए मायने को समझाया है.
(पद्मश्री बलबीर दत्त मीडिया फेलोशिप झारखंड, 2022 के तहत झारखंड के विकास में पंचायतों की भूमिका विषय की पड़ताल के अंतर्गत)