राहुल गांधी ने अपने ही कार्यकर्ताओं पर किया संदेह, चुनाव आयोग के जवाब के बाद साध ली चुप्पी

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नई दिल्ली: बीते दिनों लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के द्वारा महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भाजपा पर चुनाव आयोग की मिलीभगत से धांधली का आरोप लगाया था। राहुल गांधी के आरोपों पर चुनाव आयोग ने एक एक कर जवाब दिया और राहुल गांधी से लिखित में साक्ष्य की मांग की थी। चुनाव आयोग जवाब और साक्ष्य की मांग के बाद अब तक कांग्रेस की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं दी गई है। अब चुनाव आयोग ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर सवाल उठाया है।

चुनाव आयोग की तरफ से जारी एक बयान में कहा गया है कि भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका निष्पक्षता, पारदर्शिता और जनता के विश्वास की रीढ़ मानी जाती है। ऐसे में जब किसी प्रमुख राजनेता द्वारा बार-बार सार्वजनिक मंचों से चुनाव प्रक्रिया पर सवाल उठाए जाते हैं, तो यह केवल संस्थागत कार्यप्रणाली ही नहीं, बल्कि देश की लोकतांत्रिक आत्मा पर भी प्रश्नचिह्न बन जाता है।

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हाल ही में कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा देशभर में हुए मतदान को लेकर उठाए गए संदेह और आरोपों पर चुनाव आयोग ने 22 अप्रैल 2025 को बिंदुवार और तथ्यों पर आधारित जवाब दिया। आयोग ने स्पष्ट किया कि मतदान केंद्रों की सीसीटीवी फुटेज, यदि कोई चुनाव याचिका दाखिल होती है, तो उच्च न्यायालय की निगरानी में जांच के लिए उपलब्ध होती है। आयोग की यह व्यवस्था न केवल चुनाव की निष्पक्षता सुनिश्चित करती है, बल्कि मतदाताओं की गोपनीयता की भी रक्षा करती है जो लोकतंत्र का मूल तत्व है।

विरोधाभास तब और गंभीर हो जाता है जब राहुल गांधी खुद अपनी पार्टी द्वारा नियुक्त बूथ लेवल एजेंटों और चुनाव प्रतिनिधियों की ईमानदारी पर सवाल उठाते हैं। यह कदम न केवल उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल गिराने वाला है, बल्कि करोड़ों सरकारी कर्मचारियों, बूथ ऑफिसर, पोलिंग ऑफिसर और काउंटिंग सुपरवाइज़र की मेहनत और निष्ठा का भी अपमान है।

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चिंताजनक बात यह भी है कि राहुल गांधी जो इन मुद्दों को ‘गंभीर’ बताते हैं, अभी तक चुनाव आयोग को कोई औपचारिक पत्र नहीं लिख पाए हैं, न ही मिलने का समय मांगा है। संवैधानिक संस्थाएं सार्वजनिक बयानबाज़ी के आधार पर नहीं, बल्कि औपचारिक संवाद के आधार पर कार्य करती हैं। कांग्रेस पार्टी को भी जब 15 मई को आयोग द्वारा आमंत्रित किया गया, तब उसने समय माँगकर उस संवाद से किनारा कर लिया।

सवाल यह नहीं है कि विपक्ष सवाल उठा रहा है लोकतंत्र में यह उनका अधिकार है। लेकिन जब सवाल तथ्यों के बजाय अनुमानों पर आधारित हों, और संवाद के बजाय बयानबाज़ी को प्राथमिकता दी जाए, तो यह न केवल संस्थाओं के प्रति अविश्वास फैलाता है, बल्कि जनता के भरोसे को भी कमजोर करता है। राजनीतिक असहमति और वैचारिक विरोध जरूरी हैं, लेकिन उन्हें जिम्मेदारी और जवाबदेही के साथ निभाना भी उतना ही आवश्यक है। यदि कोई गड़बड़ी हुई है, तो उसके लिए कानूनन रास्ते खुले हैं। लेकिन यदि केवल सियासी लाभ के लिए संस्थागत साख पर चोट की जा रही है, तो यह लोकतंत्र के लिए घातक संकेत है।

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