रांची : Burning Political Issue in Jharkhand – घटे आदिवासी और बढ़े मुस्लिम आबादी पर सियासी उबाल, फ्रंट फुट पर भाजपा तो बैकफुट पर सत्ता पक्ष। केंद्रीय निर्वाचन आयोग की टीम के झारखंड दौरे पर आने के बाद से प्रदेश में सियासी दल चुनावी मोड में आ गए हैं। सत्ताधारी जेएमएम की अगुवाई वाले आईएनडीआईए गठबंधन की सरकार जहां ताबड़तोड़ जनकल्याण से सीधे जुड़े वायदों को अमलीजामा पहनाने में जुटी है तो वहीं प्रतिपक्षी एनडीए खेमे की ओर से भाजपा ने राज्य के दुखते रग को तेजी से दबाना शुरू कर दिया है। घटे आदिवासी और बढ़ी मुसलमानों की आबादी मुद्दा बीते कुछ समय से बड़े ही प्रमुखता से तर्कपूर्ण ढंग से आंकड़े के साक्ष्यों के सापेक्ष कुछ इस तरह उठा है कि सत्ता पक्ष इस मुद्दे पर बैकफुट पर दिख रहा है तो प्रतिपक्ष फ्रंटफुट पर। सत्ता पक्ष के लोग लगातार बचाव वाली मुद्रा में बयान देते नजर आ रहे हैं जबकि प्रतिपक्षी एनडीए खेमे के नेता लगातार इसी मसले को सभी प्रमुख मंचों पर उठाने से नहीं चूक रहे।
चुनावी मुद्दा बनने को तैयार है झारखंड में यह खास संवेदनशील मसला
चुनावी साल में झारखंड में घटे आदिवासी और बढ़े मुस्लिम आबादी का मुद्दा इतना संवेदनशील और ज्वलंत है कि सत्ता पक्ष के आदिवासी इलाके के नेता भी इस जमीनी सच्चाई को नहीं नकारते। पूर्व सीएम चंपाई सोरेन हाल ही में तीसरी बार सत्ता संभालने वाले सीएम हेमंत सोरेन के विश्वास मत प्रस्ताव पर इसी मुद्दे पर प्रतिपक्ष के सवालों से सरकार का बचाव करते दिखे थे। उन्होंने समस्या को नकारा नहीं बल्कि कहा कि घटे आदिवासी वाली हालत संथाल या कोल्हान में ही नहीं बल्कि राजधानी में भी है। पूरे मामले की संवेदनशीलता को इसी से समझा जा सकता है कि इस मसले पर झारखंड की मौजूदा सरकार का बचाव करते हुए विधानसभा में पूर्व सीएम चंपई सोरेन तक को कहना गया था कि आदिवासियों की आबादी पूरे झारखंड में कम हुई है। यह क्यों हुआ है, इसकी समीक्षा की जानी चाहिए एवं बात तभी बन सकती है कि जब आदिवासियों को उनके हक और अधिकार मिलें। उसी के बाद से इस मुद्दे को जिस अंदाज में भाजपा ने सियासी तूल दिया है, उससे सभी सकते में हैं। भारतीय जनता पार्टी का सीधा और सधा हुआ आरोप है कि राज्य के संथाल परगना में पिछले कुछ सालों में आदिवासियों की संख्या में कमी आई है, जबकि वहां पर मुसलमान बढ़ गए हैं और यह सब सियासी साजिश के तहत हो रहा है। सिर्फ बयानबाजी या जुबानी हमले तक भाजपा इस मसले पर सीमित और संकुचित नहीं रही। जमीनी स्तर जनता में इस मुद्दे पर मिल रहे बेहतर रिसपांस से उत्साहित भाजपा ने चुनाव आयोग में भी इसकी शिकायत कर दी है। उसी के बाद से साफ हो गया कि झारखंड में होने वाले चुनावों में यह मुद्दा गरमाएगा और सत्ता पक्ष उसी पर अपने बचाव की तैयारी करने लगा है।
आंकड़े से समझें झारखंड के इस संवेदनशील मसले की सियासी गंभीरता
संथाल परगना, कोल्हान, उत्तर छोटानागपुर और दक्षिण छोटानागपुर के कुल चार हिस्सों में भौगोलिक रूप से बंटे झारखंड में तेजी से गरमाए घटी और बढ़ी आबादी के गंभीर मसले की संवेदनशीलता को समझने के लिए इस संबंधी उपलब्ध आंकड़े पर गौर करना भी जरूरी है। उछले मसले के केंद्र में जिस संथाल परगना की चर्चा प्रमुखता से है, उसी संथाल इलाके में झारखंड के 6 जिले गोड्डा, देवघर, दुमका, जामताड़ा, साहिबगंज और पाकुड़ शामिल हैं। जब झारखंड नहीं बना था और एकीकृत बिहार का हिस्सा था तब वर्ष 1951 में पहली बार जनगणना कराई गई थी। उस समय संथाल परगना के जिलों में आदिवासियों की आबादी 44.67 प्रतिशत थी जबकि मुसलमान 9.44 प्रतिशत थे। इसी क्षेत्र की कुल आबादी के 45.9 प्रतिशत दलित, ओबीसी और सवर्ण समाज की थी। बाद में वर्ष 1971 में सामने आए सरकारी आंकड़े में इस डेमोग्राफी में बदलाव देखने को मिला। साल 1971 में आदिवासियों की संख्या में गिरावट हुई और उस साल संथाल परगना में आदिवासी 44.67 से घटकर 36.22 प्रतिशत हो गए जबकि मुसलमान 9.44 से बढ़कर 14.62 प्रतिशत हो गए। उसके बाद वर्ष 1981 के जनगणना में आदिवासियों की आबादी में मामूली बढ़त देखी गई। उस साल के जनगणना के मुताबिक संथाल में आदिवासियों की संख्या 36.80 प्रतिशत थी जबकि मुसलमानों की संख्या में करीब 2 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। फिर साल 2011 के जणगणना में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। संथाल परगना में आदिवासियों की संख्या घट गई और उनकी आबादी 28 प्रतिशत पर पहुंच गई जबकि मुसलमानों की आबादी 22.73 प्रतिशत मिली। यानी उस जनगणना में संथाल में मुसलमानों की संख्या में जबरदस्त बढ़ोतरी दर्ज हुई। अब भाजपा के सियासी रणनीतिकार इसी तथ्य को लेकर अपने स्तर स्थानीय तौर पर जुटाए जा रहे ब्योरों के साथ लगातार हमलावर हो रहे हैं।
संथाल में बदली डेमोग्राफी के जड़ में बांग्लादेशी घुसपैठी और धर्मपरिवर्तन खास वजह
संथाल परगना में सरकारी आंकड़े में मुसलमानों की आबादी बढ़ने के पीछे बांग्लादेशी घुसपैठी बड़ी वजह के रूप में उभरे हैं। वही सियासी तौर पर तूल दिए जाने की वजह भी बने हैं। पश्चिम बंगाल में इसी मुद्दे पर भाजपा शुरू से ही वहां के सत्तारूढ़ सरकारों के खिलाफ संघर्षरत रही है चाहे वह वाममोर्चा की सरकार रही हो या फिर मौजूदा तृणमूल कांग्रेस की। झारखंड की सीमाएं पश्चिम बंगाल से उन संवेदनशील बिंदुओं से जुड़ी हुई हैं जहां से आवाजाही में सामान्य रूप से कोई रोकटोक नहीं होता। बांग्लादेश से पश्चिम बंगाल में दाखिल होने के बाद सहूलियत के लिहाज से झारखंड के संथाल इलाकों में आकर धीरे-धीरे उनके बसने के पीछे वजहें भी सियासी बताई जा रही हैं। पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी का कहना है कि इस इलाके में बड़े पैमाने पर बांग्लादेशी घुसपैठियों का प्रवेश हुआ है। संथाल परगना बंगाल सीमा से लगा हुआ है और इसी के जरिए इन इलाकों में बांग्लादेशी आकर बस गए हैं जिनके पीछे सत्ता में बैठे सियासी दलों के निहित स्वार्थ छिपे हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि संथाल परगना में बदली डेमोग्राफी के पीछे केवल बांग्लादेशी घुसपैठिए ही असल वजह हों। स्थानीय लोगों की मानें तो संथाल परगना में धर्म परिवर्तन भी आदिवासियों के कम होने की एक बड़ी वजह है। वर्ष 2017 में सरकार ने इसको लेकर कानून भी बनाया था, लेकिन उसके बावजूद कई जगहों पर जबरन धर्म परिवर्तन के मामले सामने आए।
58 सीटों पर आदिवासी वोटर है निर्णायक, डेमोग्राफी मुद्दे से उन्हें साधने में जुटी भाजपा
झारखंड आदिवासी बाहुल्य राज्य है। रघुबर दास को छोड़ दिया जाए तो अब तक जितने भी मुख्यमंत्री बने हैं, सब आदिवासी समुदाय के ही रहे हैं। राज्य में विधानसभा की 81 में से 28 सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित है। इन आरक्षित सीटों को छोड़ भी दिया जाए तो करीब 30 ऐसी सीटें हैं, जहां पर आदिवासी मतदाताओं का दबदबा है। यानी झारखंड की सत्ता के लिए 58 विधानसभा सीटों पर आदिवासी वोटर ही निर्णायक हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में इन 28 में से सिर्फ 2 सीटों पर भाजपा को जीत मिली थी और ये दोनों ही सीट खूंटी जिले की थी। हाल में हुए लोकसभा चुनाव में खूंटी में भी भाजपा को कद्दावर नेता अर्जुन मुंडा के चुनावी हार के रूप में बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है। ऐसे में आदिवासियों को साधना भाजपा के लिए जरूरी है और उसी कारण से भाजपा के सियासी रणनीतिकार लगातार आदिवासियों के सीधे जुड़े डेमोग्राफी वाले मुद्दे को प्रमुखता से उठा रहे हैं। आबादी के इस मामले को भाजपा विधानसभा से लेकर चुनाव आयोग और राज्यपाल तक के सामने उठाने से नहीं चूकी। भाजपा चुनाव से पहले इस मामले को धार देना चाहती है।
जेएमएम के आदिवासी और मुसलमान गठजोड़ वाली समीकरण को भेदने में जुटी भाजपा
झारखंड में भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए के खिलाफ सियासी काट तैयार करने को वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद हेमंत सोरेन ने नया समीकरण तैयार किया। उन्होंने आदिवासियों और मुसलमानों का एक गठजोड़ तैयार किया। उसे साधने के लिए ही तब हेमंत सोरेन ने कांग्रेस और आरजेडी से सियासी गठबंधन किया। बात वहीं तक नहीं थमी थी बल्कि टिकट बंटवारे और चुनावी घोषणापत्र में भी उन्हीं समुदाय को तरजीह दी गई। नतीजा यह हुआ कि विधानसभा चुनाव में हेमंत सोरेन का वह समीकरण हिट रहा और भाजपा की सरकार चली गई। इसी साल संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में भी आदिवासी और मुसलमानों ने इंडिया गठबंधन का समर्थन किया, जिसके कारण आदिवासी बहुल झारखंड की सभी 5 सीटें भाजपा हार गई थी। अब डेमोग्राफी का मुद्दा उठाकर उसी सियासी समीकरण को संथाल परगना में तोड़कर भाजपा सीधे आदिवासियों से जुड़कर उनका भरोसा जीतने के लक्ष्य में जुट गई है। संथाल परगना के 6 जिलों में विधानसभा की कुल 18 सीटें हैं। वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव में इनमें से सिर्फ 4 सीटों पर भाजपा को जीत मिली थी। यही कारण है कि असम के मुख्यमंत्री और झारखंड में भाजपा के चुनाव प्रभारी हेमंता बिश्वा सरमा लगातार डेमोग्राफी वाले मुद्दे पर झारखंड सरकार को घेरने में जुटे हैं। शुक्रवार को भी उन्होंने झारखंड में आदिवासियों की घटती आबादी और घुसपैठियों को लेकर हेमंत सोरेन सरकार को घेरा। कहा कि झारखंड के आदिवासी तेजी से अपनी जमीन और पहचान को खो रहे हैं और उसका सबसे बड़ा कारण घुसपैठ है। उन्होंने आगे कहा कि झारखंड में बांग्लादेशी घुसपैठ लगातार तेजी के साथ बढ़ रहे हैं जो कि राज्य के हित के लिए बिल्कुल अच्छी बात नहीं है और उसे रोक पाने में मौजूदा झारखंड सरकार विफल रही है। इसी चलते झारखंड में बहुत ही तेजी डेमोग्राफी बदल रही है।