Message Of Rupauli : रूपौली का साफ संदेश – बिहार में लद गए जातीय राजनीति के दिन, कास्ट पॉलिटिक्स वाले हारे

बिहार के रूपौली विधानसभा क्षेत्र में जनसंपर्क करते शंकर सिंह की पुरानी तस्वीर।

डिजीटल डेस्क : Message Of Rupauli रूपौली का साफ संदेश – बिहार में लद गए जातीय राजनीति के दिन, कास्ट पॉलिटिक्स वाले हारे। बिहारी में जातीय राजनीति करने वाले दलों के धुरंधरों को जिस अंदाज में रूपौली विधानसभा क्षेत्र की जनता ने धूल चटाई है, वह चौकन्ना करने वाला है। साथ ही वोटरों के बदलते मिजाज का भी एक बड़ा संकेत है कि अब वोटर जातीय राजनीति के पचड़े में नहीं पड़ना चाहता और उस जातिगत राजनीति से ऊपर उठना चाहता है। यह छटपटाहट 73 साल की हो चुकी रूपौली विधानसभा क्षेत्र में साफ दिखी। यह विधानसभा सीट बिहार में वर्ष 1951 में अस्तित्व में आई और तब से यह तीसरा मौका रहा जब उसने निर्दलीय प्रत्याशी पर भरोसा तो जताया लेकिन इस बार इस जीत के पीछे नया और गूढ़ संदेश है कि सियासतदां जातिगत राजनीति से ऊपर उठें। यह अनायास ही नहीं है कि अति पिछड़ी जाति बहुल क्षेत्र होने के बावजूद रूपौली में जातीय राजनीति करने वालों की तुलना में निर्दलीय प्रत्याशी और सवर्ण को जीत मिली है।

मंडल कमीशन का समर्थन कर मुस्लिम –यादव गठजोड़ से उभरे लालू प्रसाद यादव

शनिवार को घोषित उपचुनाव के परिणाम के बाद रूपौली से जो सियासी संदेश सामने आया है, उसने बिहार की मौजूदा सियासत पर सिरे से गौर करने को धुरंधरों को मजबूर किया है। देखा जाए तो बिहार में जाति की राजनीति 90 के दशक में लालू प्रसाद यादव के उभार के साथ परवान चढ़नी शुरू हुई। मंडल कमीशन की रिपोर्ट का समर्थन कर लालू यादव सामाजिक न्याय के मसीहा के रूप में खुद को पेश किया। फिर सत्ता में रहते हुए ही बतौर मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने मुस्लिम-यादव गठजोड़ बनाकर सियासत को धार दी। उनकी सोच थी कि इन दोनों बिरादरियों की आबादी 30-32 प्रतिशत है तो इस गठजोड़ा का खूब चुनावी लाभ स्थायी रूप से मिलेगा। लालू प्रसाद की यही रणनीति लंबे समय तक उन्हें लाभ भी पहुंचाती रही। लगातार 15 साल तक बिहार की सत्ता लालू परिवार के इर्द-गिर्द रही।

लालू के काट में नीतीश ने चला लवकुश कार्ड तो भाजपा ने लोजपा को किया था आगे

लालू प्रसाद के जातीय समीकरण के काट में उनके सियासी साथी रहे नीतीश कुमार ने नई चाल चली और तो उनका भी सितारा सियासत में तेजी से चमका। हालात ऐसे हुए कि गैर कांग्रेसी समाजवादी राजनीति में लालू और अन्य समकालीन नेताओं के मुकाबले किनारे पड़े नीतीश सत्ता की सियासत के केंद्र में आए, खास तौर पर बिहार के परिप्रेक्ष्य में। उन्होंने कोइरी-कुर्मी के गठजोड़ से लव-कुश समीकरण बनाया जो उनके सियासी भाग्योदय का बुनियाद भी बना। हालात ऐसे हुए कि राष्ट्रवाद की गैर कांग्रेस सियासत करने वाली भाजपा भी न चाहकर नीतीश कुमार की चेरी बनी रही। वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव को छोड़ दें तो 2005 से ही भाजपा नीतीश की पिछलग्गू ही रही है। साल 2020 के विधानसभा चुनाव में नीतीश को पाठ पढ़ाने के लिए उनके ही जातीय राजनीति वाले अंदाज में भाजपा लोजपा के तत्कालीन कार्यकारी अध्यक्ष चिराग पासवान को शह दिया तो उन्होंने सवा सौ से अधिक सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे और उसके चलते नीतीश के कई उम्मीदवारों को हार का सामना करना पड़ा था। पुराने जदयू नेताओं को अभी भी भाजपा की वही चाल रह-रहकर सालती रहती है।

जातीय सर्वे का लाभ न जदयू को, ना ही आरजेडी को, रिजल्ट देख भाजपा भी ठिठकी

हाल के समय की बात करें तो बिहार में महागठबंधन के साथ सरकार चलाते समय सीएम नीतीश कुमार ने दो बड़े काम किए और सियासी तौर पर ऐसा जताया भी कि उन्होंने कोई बड़ा तीर मार लिया है। पहला काम था जाति सर्वेक्षण का। आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव का जाति सर्वेक्षण सपना था। उन्हें लगता था कि ऐसा होने पर 90 के दशक की राजनीति का दौर वे लौटा पाएंगे। नीतीश को भी इसमें लाभ ही दिखा। उन्होंने 500 करोड़ से अधिक खर्च कर जाति सर्वेक्षण कराया, बल्कि इसे जस्टिफाई करने के लिए सर्वेक्षण से निकले आंकड़ों के आधार पर आरक्षण की सीमा भी 50 से बढ़ा कर 65 फीसद कर दिया। आम चुनाव 2024 से पहले यह वही समय था, जब नीतीश कुमार इंडिया ब्लॉक की राष्ट्रीय राजनीति में अपनी संभावना तलाश रहे थे। उनकी इस पहल को विपक्ष ने राष्ट्रीय राजनीति में कमाल का मुद्दा माना। देश भर में जाति जनगणना की मांग होने लगी। विपक्षी अपनी सरकार बनने पर इसके कराने के वादे करने लगे। कांग्रेस ने पूरा मुद्दा ही  लपक लिया था। लेकिन रूपौली उपचुनाव के रिजल्ट ने जो संदेश दिया है, उससे साफ है कि जमीनी स्तर पर जातीय सर्वे वाले मुद्दे का लाभ न आरजेडी को मिला और न नीतीश कुमार के जदयू को। दबी जुबान से जाति सर्वेक्षण और आरक्षण बढ़ाने का स्वागत करने वाली भाजपा भी रूपौली रिजल्ट के बाद से ठिठक गई है।

रूपौली उपचुनाव में जीत दर्ज करने वाले शंकर सिंह का स्वागत करती क्षेत्र की जनता।
रूपौली उपचुनाव में जीत दर्ज करने वाले शंकर सिंह का स्वागत करती क्षेत्र की जनता।

संदेश समझें – अति पिछड़ी जाति वाले रूपौली के वोटरों ने राजपूत प्रत्याशी को चुना

जाति की राजनीति के लिए बदनाम रहे बिहार में बीते आम चुनाव के दौरान वोटरों ने जाति-धर्म से ऊपर उठ कर पूर्णिया संसदीय चुनाव में निर्दलीय पप्पू यादव का साथ दिया तो रुपौली विधानसभा उपचुनाव में निर्दलीय शंकर सिंह को विधायक बनाया। ताजा चुनावी नतीजा सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों को चेतने का संदेश देने वाला है। पूर्णिया संसदीय क्षेत्र में ही रूपौली विधानसभा क्षेत्र भी आता है। लोकसभा चुनाव में एनडीए समर्थित जेडीयू प्रत्याशी संतोष कुशवाहा को जिस रुपौली में 73 हजार से अधिक वोट मिले थे, उसी रूपौली में विधानसभा उपचुनाव के दौरान एनडीए समर्थित जेडीयू प्रत्याशी कलाधर मंडल को करीब 60 हजार वोट ही मिल पाए और देखते ही देखते जदयू के 13 हजार वोट गायब हो गए। इसी तरह आईएनडीआईए गठबंधन की ओर से आरजेडी की उम्मीदवार बीमा भारती पूर्णिया लोकसभा चुनाव के साथ अपनी पारंपरिक सीट रूपौली विधानसभा चुनावों में भी तीसरे नंबर पर रहीं। निर्दलीय शंकर सिंह अपनी राजपूत बिरादरी के कम वोटों के बावजूद बाजी मार ले गए। निर्दलीय शंकर सिंह को उपचुनाव में कुल 68070 वोट मिले जबकि जदयू के कलाधार मंडल को 59824 और आरजेडी की बीमा भारती को 30619 वोट मिले।

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