रांची: झारखंड की राजनीतिक पिच पर इस बार नज़ारा कुछ और ही है। चुनावी मौसम में जब नेताओं ने हलफनामे दिए, तब सामने आई एक अद्भुत सच्चाई—81 सीटों पर चुनाव लड़ने वाले 30 बड़े चेहरे ऐसे हैं जो अपने साथ ढेर सारे हथियार लेकर चुनावी रण में कूद रहे हैं। इस बार की लड़ाई सिर्फ वोटों की नहीं, बल्कि ताकत के प्रदर्शन की भी है।
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, जो बरहेट से चुनावी दंगल में हैं, के पास 55 हजार की एक दमदार रायफल है। वहीं, पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन के पास तीन हथियार हैं—एक डबल बैरल बंदूक, एक पिस्तौल और एक एनपी बोर की बंदूक। यह है स्थिति की सच्चाई, जो दर्शाती है कि झारखंड में ‘राजनीति में बंदूक की ताकत’ का एक नया मापदंड तैयार हो रहा है।
असली मज़ा तब आता है जब हम देखते हैं कि भाजपा के धुरंधर नेता बाबूलाल मरांडी जैसे नाम भी बिना हथियार के चुनावी मैदान में हैं। कहने को तो ये सब ‘अहिंसा परमो धर्म’ की बात कर रहे हैं, लेकिन क्या ये ‘लौटकर आने का समय’ नहीं है? क्या यह होड़ नहीं है ताकत की?
कोल्हान के नेताओं में सबसे ज्यादा हथियारों की मौजूदगी है, जबकि पलामू प्रमंडल के नेता इस मामले में कुछ पीछे हैं। आंकड़े बताते हैं कि झारखंड में सबसे ज्यादा 3000 हथियारों के लाइसेंस पलामू प्रमंडल में हैं। लेकिन, इस सबके बीच मंत्री मिथलेश ठाकुर जैसे नेता भी हैं, जिनके हलफनामे में हथियारों का कोई जिक्र नहीं है, हालांकि सुरक्षा गार्डों के बीच रहते हैं।
इधर, चर्चित विधायक भानु प्रताप शाही और निर्दलीय अरविंद सिंह के हलफनामे में कोई भी हथियार नहीं है, जबकि मंत्री दीपक बिरुवा के पास एक पिस्तौल और एक रायफल है। ये सभी उदाहरण यह बताते हैं कि इस बार का चुनाव केवल वोटों की गिनती का खेल नहीं, बल्कि सशक्तिकरण का भी प्रतीक है।सुदेश महतो जैसे नेता डेढ़ लाख के दो महंगे हथियारों के साथ चुनावी मैदान में हैं। यह कहावत सच साबित होती दिख रही है—”कभी-कभी ताकत ही सब कुछ होती है।”
इस सबके बीच, महिला प्रत्याशी गीता कोड़ा भी एक पिस्तौल के साथ चुनावी दंगल में हैं। इस तरह, झारखंड के चुनावों में अब हथियारों का जिक्र न केवल बल, बल्कि राजनीतिक कूटनीति का भी एक अहम हिस्सा बन चुका है। इसलिए, यह कहना गलत नहीं होगा कि झारखंड के चुनाव अब ‘बंदूकें या वोट’ के प्रश्न पर आ खड़े हुए हैं। ये चुनाव केवल लोकतंत्र का उत्सव नहीं, बल्कि शक्ति के प्रदर्शन का भी एक अनूठा मंच बन गए हैं। चुनावी समर में असली सवाल यही है: क्या वोटों की ताकत बंदूक की ताकत को मात दे पाएगी?