Historical Verdict : सुप्रीम कोर्ट ने कहा – हर एक निजी संपत्ति को सरकार अपने नियंत्रण में नहीं ले सकती

डिजीटल डेस्क : Historical Verdictसुप्रीम कोर्ट ने कहा – हर एक निजी संपत्ति को सरकार अपने नियंत्रण में नहीं ले सकती। किसी व्यक्ति या समुदाय की निजी संपत्ति को समाज की भलाई के लिए सरकार अपने नियंत्रण में ले सकती है या फिर नहीं? चीफ जस्टिस (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली 9 जजों की संविधान पीठ ने मंगलवार को  दशकों पुराने इस सवाल पर 7-2 के बहुमत से फैसला सुना दिया।

अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा कि – ‘हर एक निजी संपत्ति को सरकार अपने नियंत्रण में नहीं ले सकती। सरकार केवल उन संसाधनों पर ही दावा कर सकती है जो समाज की भलाई के लिए हैं और समुदाय के पास हैं’। 

9 जजों की संविधान पीठ ने 1978 से अभी तक के कई फैसले पलटे

सीजेआई ने 9 जजों की बेंच के मामले में बहुमत से फैसला सुनाते हुए कहा- ‘बहुमत ने न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर के पिछले फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि सभी निजी स्वामित्व वाले संसाधनों को राज्य द्वारा अधिग्रहित किया जा सकता है।

…इसमें कहा गया है कि पुराना शासन एक विशेष आर्थिक और समाजवादी विचारधारा से प्रेरित था। पिछले 30 सालों में गतिशील आर्थिक नीति अपनाने से भारत दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बन गया है। वह जस्टिस अय्यर के इस दर्शन से सहमत नहीं हैं कि निजी व्यक्तियों की संपत्ति सहित हर संपत्ति को सामुदायिक संसाधन कहा जा सकता है।

…1960 और 70 के दशक में समाजवादी अर्थव्यवस्था की ओर झुकाव था, लेकिन 1990 के दशक से बाजार उन्मुख अर्थव्यवस्था की ओर ध्यान केंद्रित किया गया। भारत की अर्थव्यवस्था की दिशा किसी विशेष प्रकार की अर्थव्यवस्था से दूर है, बल्कि इसका उद्देश्य विकासशील देश की उभरती चुनौतियों का सामना करना है।

…सभी निजी संपत्ति समुदाय के भौतिक संसाधन नहीं। कुछ निजी संपत्ति समुदाय के भौतिक संसाधन हो सकती हैं। …सामग्री और समुदाय शब्दों का प्रयोग निरर्थक अतिश्योक्ति नहीं है। व्यापक विधायी व्याख्या के संदर्भ की आवश्यकता नहीं है।

…संविधान के पाठ से यह स्पष्ट है कि 42वें संशोधन की धारा-4 को शामिल करने का संसद का इरादा विधायिका की शक्ति को शामिल करना था। संसद की स्पष्ट मंशा को देखते हुए यह देखा जा सकता है कि इस शब्द को निरस्त करने का कोई इरादा नहीं था। अनुच्छेद 31सी का असंशोधन पुनर्जीवित हो गया’।

निजी संपत्ति पर Supreme Court की संविधान पीठ मंगलवार को सुनाया अपना ऐतिहासिक फैसला ।
निजी संपत्ति पर Supreme Court की संविधान पीठ मंगलवार को सुनाया अपना ऐतिहासिक फैसला ।

निजी संपत्ति के विवाद की जड़ में है संविधान के अनुच्छेद 39 बी की व्याख्या…

निजी संपत्ति भी समाज ही का है? असमानता की इसी खाई को पाटने के सवाल पर लोकसभा चुनाव में जिस वक्त भाजपा और कांग्रेस बहस कर रहे थे, सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की संवैधानिक पीठ इस सवाल पर माथापच्ची कर रही थी कि क्या किसी की निजी संपत्ति को कब्जे में ले कर सरकार उसे जरूरतमंद लोगों में बांट सकती है?

यानी संविधान का अनुच्छेद 39बी इस विवाद की जड़ में है। अदालत की अलग-अलग बेंच इसी अनुच्छेद की व्याख्या में उलझती रही है। दरअसल 39बी संविधान के चौथे भाग में आता है। संविधान का ये हिस्सा डीपीएसपी (डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी यानी नीति निर्देशक तत्त्व) कहलाता है।

जैसा कि नाम ही से स्पष्ट है, डीपीएसपी में कही गई बातों को लागू करने के लिए सरकार बाध्य नहीं है। ये महज इशारा है, जिसे ध्यान में रखकर नीति बनाने की अपेक्षा संविधान को है। 39बी में कहा गया है कि राज्य ऐसी नीति बनाए जिससे संसाधनों के स्वामित्व और नियंत्रण का बंटवारा कुछ इस तरह हो कि उससे आम लोगों की भलाई अधिक से अधिक हो सके।

करीब पांच दशक से 39बी की व्याख्या का एक पहलू उलझा हुआ है और वो ये कि कौन सी चीज समुदाय का संसाधन है और क्या नहीं? वर्ष 1977 में सुप्रीम कोर्ट ने इस सिलसिले में एक महत्त्वपूर्ण फैसला सुनाया।

तब  मामला कर्नाटक सरकार बनाम रंगनाथ रेड्डी के नाम से अदालत में सुना गया और तब 7 जजों की पीठ ने 4:3 के बहुमत से यह फैसला सुनाया कि निजी संसाधान या आसान लफ्जों में कहें तो निजी संपत्ति को समुदाय का संसाधन नहीं माना जा सकता।

उस फैसले से जिन तीन जजों को आपत्ति थी, उनमें से एक जस्टिस कृष्णा अय्यर (अब रिटायर्ड) का अल्पमत का फैसला बाद के बरसों में बेहद प्रासंगिक और प्रभावशाली होता चला गया। जस्टिस अय्यर ने कहा था कि निजी स्वामित्त्व वाले संसाधनों को भी समुदाय का ही संसाधन माना जाना चाहिए।

उन्होंने इसके लिए एक दिलचस्प तर्क दिया था। तर्क ये कि दुनिया की हर मूल्यावान या इस्तेमाल की जाने वाली चीज भौतिक संसाधन है और चूंकि व्यक्ति (जिसका उस पर स्वामित्त्व है) भी समुदाय का हिस्सा है, उसके संसाधन को भी समुदाय के हिस्से के तौर पर देखा जाना चाहिए।

उसके बाद वर्ष 1983 में संजीव कोक मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाम भारत कोकिंग कोल मामले में पांच जजों की बेंच के सामने फिर एक बार मिलता-जुलता सवाल था। सवाल यह कि कोयला खदानों और उनसे जुड़े कोक ओवन प्लांट का जो राष्ट्रीयकरण केंद्र सरकार ने कानून के जरिये किया है, वह जायज है या नहीं?

तब 5 जजों की बेंच ने जस्टिस अय्यर के ही फैसले के आधार पर राष्ट्रीयकरण वाले केंद्र सरकार के कानून को दुरुस्त बताया था। साथ ही, यह भी स्पष्ट किया था कि संविधान का अनुच्छेद 39बी निजी संपत्ति को सार्वजनिक संपत्ति के तौर पर तब्दील करने का दायरा देता है।

फिर साल 1996 में सुप्रीम कोर्ट के सामने मफतलाल इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम भारत सरकार नाम से मुकदमा सुना जा रहा था। तब जस्टिस परिपूर्णन ने अपने फैसले में 39बी की व्याख्या के लिहाज से जस्टिस अय्यर और संजीव कोक मामले में कही गई बातों पर सहमति जताई थी।

सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट

निजी संपत्ति के विवाद का मामला महाराष्ट्र से जुड़ा हुआ लेकिन व्यापक महत्व वाला मुद्दा…

सुप्रीम कोर्ट के सामने ये मौजूदा मामला महाराष्ट्र सरकार के 1976 के एक कानून और उसमें हुए कुछ संशोधनों के बाद पहुंचा। 1976 में महाराष्ट्र की सरकार एक कानून लेकर आई – महाराष्ट्र आवास और क्षेत्र विकास कानून। इसके तहत शहर की पुरानी और खस्ताहाल इमारतों से जुड़ी एक समस्या को खत्म करने का ख्वाब देखा गया।

नए कानून में यह प्रावधान किया गया कि वे इमारतें जो समय के साथ असुरक्षित होती जा रही हैं, लेकिन फिर भी वहां कुछ गरीब परिवार किरायेदार के तौर पर रह रहे हैं, उन्हें मुंबई बिल्डिंग रिपेयर एंड रिकंस्ट्रक्शन बोर्ड को सेस (एक तरह का टैक्स) देना होगा, जिससे इमारतों की मरम्मत हो सके। यहां तक कोई दिक्कत नहीं थी।

दिक्कत हुई साल 1986 में। इस बरस महाराष्ट्र सरकार ने अनुच्छेद 39बी का इस्तेमाल करते हुए कानून में दो संशोधन किया। इनमें से एक का मकसद जरुरतमंद लोगों को उन जमीनों और इमारतों का अधिग्रहण कर दे देना था, जहां वे रह रहे हैं।

दूसरे संशोधन में तय हुआ कि राज्य सरकार उन इमारतों और जमीनों का अधिग्रहण कर सकती है जिन पर सेस लगाया जा रहा है। भरसक कि वहां रह रहे 70 फीसदी लोग सरकार से इस अधिग्रहण का अनुरोध करें। ये संशोधन मुंबई के उन मकान मालिकों को रास नहीं आया जिनको संपत्ति इसकी वजह से खोने का डर था।

लिहाजा, उन्होंने 1976 के कानून में हुए संशोधन को मुंबई के प्रॉपर्टी ऑनर्स एसोसिएशन ने बॉम्बे हाईकोर्ट में चुनौती दी। उनकी दलील थी कि महाराष्ट्र सरकार का संशोधन संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत हासिल उनके समानता के अधिकार का उल्लंघन है।

हालांकि, बॉम्बे हाईकोर्ट ने अपने फैसले में पाया कि समानता के अधिकार का हवाला देते हुए अनुच्छेद 39बी के तहत बने कानून को चुनौती नहीं दी जा सकती। आखिरकार, दिसंबर 1992 में एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट का रूख किया और हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील की।

अब सुप्रीम कोर्ट में मूल सवाल यह बन गया कि संविधान के अनुच्छेद 39बी के तहत निजी स्वामित्त्व वाले संसाधन या यूं कहें कि निजी संपत्ति को समुदाय का संसाधन माना जा सकता है या नहीं?

वर्ष 2001 में सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की पीठ ने सुनवाई की और इसे एक बड़ी बेंच के सामने भेज दिया। फिर 7 जजों की बेंच ने भी अगले साल सुनवाई की मगर वह भी इसे नियत मकाम पर नहीं पहुंचा सकी और मामले को 9 जजों को भेज दिया गया।

निजी संपत्ति पर Supreme Court की संविधान पीठ मंगलवार को सुनाया अपना ऐतिहासिक फैसला ।
निजी संपत्ति पर Supreme Court की संविधान पीठ मंगलवार को सुनाया अपना ऐतिहासिक फैसला ।

कुल 16 याचिकाओं पर 9 जजों की संविधान पीठ ने सुनाया यह ऐतिहासिक फैसला…

सुप्रीम कोर्ट आज निजी संपत्ति मामले में कुल 16 याचिकाओं पर अपना फैसला सुनाया गया। इनमें मुख्‍य याचिका मुंबई के प्रॉपर्टी मालिकों के संघ की है। साल 1986 में महाराष्ट्र में कानून में किए गए संशोधन को चुनौती दी गई थी, जिसमें प्राइवेट बिल्डिंग के अधिग्रहण का अधिकार, मरम्मत और सुरक्षा के लिए अधिग्रहण का अधिकार शामिल है।

याचिकाकर्ता का कहना था कि कानून में किया गया ये संशोधन भेदभाव पूर्ण है और निजी संपत्ति पर कब्जे की कोशिश है। दूसरी ओर, महाराष्‍ट्र सरकार का कहना था कि ये संविधान के मुताबिक संशोधन है। इसी पर सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की संविधान पीठ ने मंगलवार को अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया।

फैसला सुनाने वाली संविधान पीठ में मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस ऋषिकेश रॉय, जस्टिस बी वी नागरत्ना, जस्टिस सुधांशु धूलिया, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस मनोज मिश्रा, जस्टिस राजेश बिंदल, जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह शामिल रहे।

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