मायावती ने बसपा में पुराने साथियों के लिए घर वापसी का खोला दरवाजा

डिजीटल डेस्क : मायावती ने बसपा में पुराने साथियों के लिए घर वापसी का खोला दरवाजा। मायावती ने बसपा संगठन में जान डालने को पुराना बुनियादी दांव अपनाना तय किया है।

एक के बाद एक चुनाव में मिले सियासी झटके और खिसके जनाधार के बाद सत्ता-संघर्ष में अपने संगठन को हाशिए पर पा रही मायावती ने बसपा (बहुजन समाज पार्टी) को फिर से उसके पुराने नीतियों और संगियों से जोडने की योजना बनाई है। इसी क्रम में बसपा छोड़कर गए नेताओं की घर वापसी का दरवाजा पार्टी सुप्रीमो मायावती ने खुद ही खोल दिया है।

2027 के यूपी विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुटीं मायावती

बसपा को सत्ता की लड़ाई की मुख्य धारा में लाने के लिए काफी कुछ मंथन करने के बाद पार्टी सुप्रीमो मायावती ने यह कार्ययोजना तैयार की है। माना जा रहा है कि अपने पुराने नेताओं की घर वापसी के जरिए वह वर्ष 2027 में यूपी में होने वाले विधानसभा चुनाव की सियासी बिसात बिछाने में जुट रही हैं ताकि सत्ता की लड़ाई में बसपा फिर से पुनर्स्थापित हो सके।

मायावती की रणनीति है कि संगठन में पुराने नेताओं को एकजुट करके बसपा के खिसकते जनाधार को रोका जा सके। मायावती के नए दिशा-निर्देश के बाद बसपा के पुराने नेताओं को मनाने का काम भी शुरू होने जा रहा है।

इसी क्रम में पहले चरण में बसपा अपने उन नेताओं को घर-वापसी पर फोकस कर रही है, जो पार्टी छोड़ दिए हैं, लेकिन उन्होंने किसी भी दल का दामन नहीं थामा है। यानी सियासी तौर पर  वो अपने घर बैठे हुए हैं और निष्क्रीय हैं।

दूसरे चरण में बसपा में उनकी घर-वापसी कराने की रणनीति बनी है, जो बसपा छोड़कर सपा, भाजपा या कांग्रेस में गए हैं, लेकिन उन्हें अपेक्षित सियासी ओहदा या सम्मान नहीं मिला। इन दो चरण में बसपा सफल रही तो नेतृत्व का माना है कि जमीनी स्तर पर अपने कैडरों के लिए मजबूत सियासी नैरेटिव गढ़ने में बसपा सफल हो सकेगी।

बसपा संस्थापक के रहते मायावती के सियासी रसूख को बयां करती तस्वीर। इसमें विहिप के दिग्गज नेता और पूर्व भाजपा सांसद विनय कटियार भी दिख रहे हैं।
बसपा संस्थापक के रहते मायावती के सियासी रसूख को बयां करती तस्वीर। इसमें विहिप के दिग्गज नेता और पूर्व भाजपा सांसद विनय कटियार भी दिख रहे हैं।

बसपा छोड़ने या बाहर निकाले जाने वाले राजनेताओं की लंबी है फेहरिस्त…

वर्ष 2012 में बसपा के सत्ता से बेदखल होने के बाद बसपा के तमाम नेता पार्टी छोड़कर चले गए हैं, जिसमें ओबीसी और मुस्लिम ही नहीं बल्कि दलित समाज के भी नेता हैं।

बसपा में रहते हुए स्वामी प्रसाद मौर्य, लालजी वर्मा, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, इंद्रजीत सरोज, रामअचल राजभर, सुनील चित्तौड़, बृजलाल खाबरी, दद्दू प्रसाद, बाबू सिंह कुशवाहा, नकुल दुबे, अब्दुल मन्नान, लालजी निर्मल, राज बहादुर, राम समुझ, हीरा ठाकुर और जुगल किशोर जैसे नेताओं की तूती बोलती थी।

बसपा छोड़कर दूसरे दल में गए इन नेताओं को बसपा जैसा रुतबा हासिल नहीं हो सका। इस लिहाज से केवल बृजेश पाठक ही अपवाद रहे और यूपी के मौजूदा योगी आदित्यनाथ सरकार में उपमुख्यमंत्री हैं।

इसी क्रम में हालिया मंथन में बसपा नेतृत्व में खिसकते जनाधार की सच्चाई से रूबरू हुई। पाया कि यूपी में बसपा की सियासी ताकत सिर्फ दलित वोटों के सहारे नहीं बढ़ी थी बल्कि बहुजन वोटों के जरिए मिली थी। बहुजन वोटरों में दलित, ओबीसी और अति पिछड़े वर्ग की तमाम जातियों का जुड़ाव था।

लेकिन पिछले एक दशक में बसपा से सैकड़ों बड़े नेता पार्टी छोड़कर चले गए हैं जबकि दूसरे दलों से कोई बड़ा जनाधार वाला नेता नहीं आया है। बसपा से गए नेता सपा और भाजपा में सियासी संजीवनी देने का काम किया है तो बसपा का कोर वोटबैंक जाटव समाज भी छिटकने लगा है।

यही वजह है कि मायावती अब बसपा से गए नेताओं की घर वापसी का ताना बाना बुन रही हैं ताकि दोबारा से पार्टी को मजबूती दी जा सके।

बसपा संस्थापक कांशीराम के साथ की मायावती की फाइल फोटो
बसपा संस्थापक कांशीराम के साथ की मायावती की फाइल फोटो

असफलताओं के बाद बसपा संस्थापक कांशीराम की नीतियों और सियासी फार्मूले पर लौटीं मायावतीं…

बीते शनिवार को मायावती ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के बसपा पदाधिकारियों की बैठक ली। उसमें उन्होंने 15 जनवरी से संगठन का विस्तार करने का निर्देश दिया। साथ ही, पुराने कर्मठ नेताओं को भी दोबारा जोड़ने को कहा।

इसी क्रम में सियासी हल्के में चर्चा तेज हो चली है कि बसपा को सियासी झटका लगने के बाद मायावती एक बार फिर से अपने पुराने समीकरण पर लौटना चाहती हैं। अब उसीलिए वह अपने पुराने नेताओं की घर वापसी में जुट गई हैं। मुस्लिम और गैर यादव ओबीसी जातियों को दोबारा से संगठन में लाने की तैयारी में हैं।

इसीलिए बसपा अपने पुराने उन नेताओं को दोबारा से लेने की जुगत में हैं, जिनका अपने-अपने समाज के बीच मजबूत पकड़ और पहचान रही है। कांशीराम के दौर में बसपा दलित-मुस्लिम-अति-पिछड़ी जाति के गठजोड़ की हिमायती रही है, लेकिन मायावती के दलित-ब्राह्मण कार्ड चला।

उसका नतीजा रहा कि मुस्लिम धीरे-धीरे सपा में और अति-पिछड़ी जातियां भाजपा में शिफ्ट होते गए और 2024 के लोकसभा चुनाव में पूरी तरह से चला गया।

बसपा को 2024 के लोकसभा चुनाव में सिर्फ 9.39 फीसदी वोटर यूपी में मिले लेकिन खाता नहीं खुल सका था। उसके बाद हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र, झारखंड और यूपी उपचुनाव में बसपा को तगड़ा झटका लगा। उसके बाद पार्टी प्रमुख मायावती को बसपा छोड़ गए नेताओं की याद आई है।

बसपा संस्थापक कांशीराम के साथ की मायावती की फाइल फोटो
बसपा संस्थापक कांशीराम के साथ की मायावती की फाइल फोटो

कांशीराम के जमाने की खड़ी हुई बसपा मायावती के राज में पुराने रीति-नीतियों से कर लिया था किनारा…

उत्तर प्रदेश की सियासत में एक के बाद एक चुनाव में मिल रही हार से बसपा प्रमुख मायावती हताश हैं। खिसके सियासी जनाधार को दोबारा से पाने का फेल होता हर फार्मूला मायावती को अपनी रीति-नीति पर मंथन करने को विवश किया।

इसी क्रम में यहां बता दें कि बसपा के रूप में कांशीराम ने उत्तर प्रदेश को दलित राजनीति की प्रयोगशाला बनाया था। कांशीराम ने दलित, पिछड़े और अति पिछड़ा वर्ग के तमाम नेताओं को साथ लेकर दलित समाज के बीच राजनीतिक चेतना जगाने के लिए बसपा यानी बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था।

कांशीराम के साथ सियासी पारी शुरू करने वाले नेताओं ने मायावती का सियासी कद बढ़ने के बाद एक-एक कर संगठन छोड़ गए या फिर मायावती ने खुद उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। आलम यह हो गया था कि मायावती के सियासी कहर का शिकार कब, कौन, कहां और कैसे हो जाए कहा नहीं जा सकता था।

मायावती ने उन नेताओं को भी नहीं बख्शा, जिन्हें उनका सबसे करीबी भी माना जाता था। इसी क्रम में मायावती कामयाबी की सीढ़ी चढ़ती गईं और वर्ष 2007 में बसपा सूबे में ऐतिहासिक जीत का परचम फहराया।  लेकिन वहीं एक जमीनी सच्चाई थी कि उस सियासी सफर में कांशीराम के वो सभी साथी बसपा से दूर हो गए जो कभी पार्टी की जान हुआ करते थे।

उसके चलते बसपा का सियासी आधार दिन ब दिन सिकुड़ता चला गया। नतीजा यह हुआ कि बसपा आज यूपी में उस स्थान पर खड़ी है, जहां वर्ष 1989 में हुआ करती थी।

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