गढ़वा: गढ़वा, जिसे कभी राजद का गढ़ माना जाता था, अब एक सियासी ताश का पत्ता बनकर रह गया है। यहां के चुनावी मैदान में मिथिलेश ठाकुर, सत्येंद्रनाथ तिवारी और गिरिनाथ सिंह जैसे नेता आमने-सामने हैं। इस लड़ाई में हर कोई दूसरे को धोखा देने की फिराक में है, जैसे कहावत है, “सांप निकल गया, लकीर पीट रहे हो।”
गिरिनाथ सिंह ने 1993 से 2005 तक राजद का झंडा बुलंद रखा। उस वक्त उनके साथ राजपूत, मुस्लिम, यादव और अनुसूचित जाति के मतदाताओं का ऐसा जुगाड़ था कि “गाड़ी के पहिए में पंक्चर भी नहीं होता।” लेकिन, 2009 में सत्येंद्रनाथ तिवारी ने इस गढ़ पर अपना कब्जा कर लिया। फिर 2014 में भाजपा की लहर आई, और उन्होंने गढ़वा में ऐसा तूफान मचाया कि “बर्तन में रखी दाल भी उबलने लगी।”
2019 में मिथिलेश ठाकुर ने झामुमो के उम्मीदवार के रूप में भाजपा के सत्येंद्रनाथ तिवारी को धूल चटाई। उस चुनाव में उन्होंने साबित कर दिया कि गढ़वा की राजनीति में सब कुछ संभव है, जैसे कहते हैं, “बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा।” अब 2024 में फिर से वही चेहरे, लेकिन कहानी थोड़ी अलग। मिथिलेश झामुमो से, सत्येंद्रनाथ भाजपा से और गिरिनाथ सपा से चुनावी अखाड़े में हैं।
इस बार का चुनावी माहौल गरम है। दुर्गापूजा के दौरान हुई हिंसा और प्रशासनिक कार्रवाई ने भाजपा के खिलाफ हलचल मचा दी है। अब देखना यह है कि क्या गिरिनाथ सिंह “अंधेरे में तीर चलाने” में सफल होंगे या फिर मिथिलेश और सत्येंद्रनाथ की लड़ाई गढ़वा की राजनीतिक तस्वीर को फिर से रंगीन कर देगी।
इस सियासी कहानी में हर चुनाव एक नया पाठ है, जैसे कहते हैं, “नाच न जाने आंगन टेढ़ा।” तो गढ़वा की राजनीति में ये तीनों नेता अपनी-अपनी चालें चल रहे हैं। कौन जीत जाएगा, यह तो चुनावी नतीजों पर निर्भर करता है, लेकिन एक बात तो तय है: यहां की राजनीति में हर बार नया रंग और नया तड़का होता है।