खेल की खासियत ये होती है कि ये आंखों से उतरता है और सांसों में धड़कता है। सुबह महिला हाकी की जीत दिलों में पहले उतरी या आंखों में कहना मुश्किल है। महज एक शून्य की बढ़त और सामने ऑस्ट्रेलिया जैसी दिग्गज टीम। ये जीत लेने की जिद थी या हॉकी को जी लेने की जिजीविषा समझ में आए तो लिखूं। इस जीत को ओलंपिक में महिला हॉकी टीम के सेमीफाइनल तक के सफर से जोड़कर ना देखें। ये कुंद होती भारतीय स्टाइल की हॉकी को जीवनदान है। भारतीय हॉकी पर नब्बे के दशक के उत्तरार्ध से आंसू बहाने का सिलसिला शुरू होता है। 2004-05 में मैं जब इंडिया टीवी में था तब इस पर विस्तार से चर्चा की। वहीं नरिंदर ब़त्रा जी से बात हुई। वो भी हॉकी में सुधार के लिए उस समय के हॉकी फेडरेशन से अपने हिस्से की लड़ाई लड़ रहे थे। साझा थी तो ये चिंता कि भारतीय हॉकी की स्थिति कब सुधरेगी ? उन्हें उनका मुकाम मिला और अब जब हॉकी टीम को देखता हूं तो ऐसा लगता है कि वो लड़ाई निश्चित मुकाम तक पहुंच गई है। ध्यान दीजिएगा कि भारतीय हॉकी को धीरे धीरे मारा गया था। तब ये तर्क था कि भारतीय स्टाइल की हॉकी एस्ट्रो टर्फ पर टिक नहीं सकती। अब इसे फिर से जिंदा किया जा रहा है बिना मौलिकता खोए।
टोक्यो ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम का प्रदर्शन इस बात का पक्का यकीन है कि भविष्य में इंडियन ड्रिबलिंग पर विश्व हॉकी को नाचना होगा। हॉकी में पावर गेम ही सब कुछ नहीं। बधाई……….सिर्फ जीत के लिए नहीं बल्कि भारतीय हॉकी के पुनर्जीवित होने पर भी…..