Supreme Quote : कोलकाता निर्भया कांड पर कोर्ट ने किया अरुणा शानबाग केस का जिक्र, 42 साल कोमा में रहकर तोड़ा था दम

अरुणा शानबाग को नम आंखों से उन नर्सों ने विदाई थी जिन्होंने 42 सालों तक उनकी लगातार देखभाल की।

डिजीटल डेस्क : Supreme Quoteकोलकाता निर्भया कांड पर सुप्रीम कोर्ट ने किया अरुणा  शानबाग केस का जिक्र,  42 साल कोमा में रहकर तोड़ा था दम।  कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में मेडिकल छात्रा के रेप और मर्डर केस पर जारी घमासान पर स्वत: संज्ञान लेकर मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की।

मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली खंडपीठ ने कोलकाता मामले में एक के बाद एक फैसले सुनाने के क्रम में टिप्पणियां भी कीं। उसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने सालों पुराने बहुचर्चित अरुणा शानबाग मामले का भी ज़िक्र किया।

पैशाचिक अमानवीयता का शिकार हुईं अरुणा शानबाग करीब 42 साल तक कोमा में रहने के बाद जिंदगी की जंग हार गई थीं। उनकी आपबीती अंदर तक झकझोर कर रख देने वाली है। कोमा में सालों पड़ी रहीं अरुणा शानबाग ने मांगने पर कोर्ट इच्छामृत्यु तक नहीं मिली थी। साल 2015 में उनका निधन हुआ था।

अरुणा शानबाग और उनकी वह सिहरा देने वाली आपबीती….

आज अगर अरुणा शानबाग जिंदा होती तो उनकी उम्र करीब 75 साल होती। उन्होंने  23 साल की उम्र में ही जो जख्म झेला,वैसा बहुत ही कम सुनने को मिलता है।  उनका जन्म कर्नाटक के हल्दीपुर में उत्तर कन्नड़ इलाके में साल 1948-49 में हुई थी।

घर में 8 भाई-बहन थे और आठवीं तक पढ़ाई करने के बाद अरुणा शानबाग कर्नाटक से अपनी बड़ी बहन के पास मुंबई पहुंचीं। वहां पर वह हॉस्टल में रहकर नर्सिंग का कोर्स  किया और पढ़ाई पूरी होने के बाद मुंबई के ही किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में 1971 में जूनियर नर्स के तौर पर काम शुरू किया।

उसी अस्पताल में एक डिपार्टमेंट में कुत्तों के ऊपर दवा का परीक्षण होता था और उनको दवा देने की जिम्मेदारी अरुणा शानबाग की थी। वहीं एक रेजिडेंट डॉक्टर से अरुणा को प्यार हो जाता है और दोनों शादी करने का फैसला करते हैं। डॉक्टर और अरुणा की शादी जनवरी 1974 में होनी तय हुई।

उसी अस्पताल में एक वॉर्डबॉय सोहन लाल वाल्मिकी भी काम करता था और वह मूल रूप से यूपी का रहना वाला था।  वह अस्पताल में कुत्ते वाले विभाग में साफ-सफाई का काम करता था। सोहनलाल के काम और कुत्तों के लिए आने वाले खाने की चोरी को लेकर अरुणा शानबाग ने उसको कई बार डांटा था।

तभी सोहनलाल की सास की तबीयत काफी खराब हो गई थी और उसने अरुणा शानबाग से छूट्टी मांगी थी तो नहीं मिला था। दोनों के बीच रिश्ते काफी खराब थे और फिर 27 नवंबर 1973 को रात के करीब 8 बजे अरुणा शानबाग अस्पताल के बेसमेंट में ड्यूटी खत्म होने के बाद अपने कपड़े बदलने के लिए पहुंचीं।

वहां पर पहले से सोहनलाल मौजूद था और उसने अरुणा शानबाग पर झपट्टा मारा और जबरदस्ती करने की कोशिश की। उसी क्रम में उसने कुत्ते के गले में डालने वाला चेन डालकर अरुणा का गला कस दिया जिससे अरुणा की गर्दन की नस दब गई और वह बेहोश हो गईं। उसके बाद सोहनलाल ने अरुणा के साथ दुष्कर्म किया और मौके से फरार हो गया।

अरुणा शानबाग केस में पकड़ा गया था आरोपी सोहन लाल
अरुणा शानबाग केस में पकड़ा गया था आरोपी सोहन लाल

आरोपी पकड़ाया पर नहीं दर्ज हुआ रेप का केस, हुई सिर्फ 7 साल की सजा

दुष्कर्म की घटना के बाद करीब 10 से 11 घंटे तक अरुणा शानबाग उसी बेसमेंट में पड़ी रहीं। अगली सुबह दूसरे सफाईकर्मी ने उनको वहां उस हाल में देखकर शोर मचाया तो पूरा मामला खुला। फिर अरुणा का इलाज शुरू हुआ तो डॉक्टरों ने देखा कि वह कोमा में जा चुकी है।

गले में चेन के दबाव की वजह से उनकी सुनने, बोलने की शक्ति चली गई थी और शरीर को लकवा भी मार गया था। अब अरुणा शानबाग सिर्फ एक जिंदा लाश थीं। उस घटना के बाद तब वहां भी नर्सों ने अपनी सुरक्षा को लेकर विरोध प्रदर्शन किया।

मामले की जांच शुरू हुई तो फरार सोहनलाल पकड़ा गया तो सुनवाई के बाद सोहनलाल उसे हत्या की साजिश और लूट के आरोपी में दोषी पाते हुए 7 साल की सजा सुनाई गई।  पुलिस ने उस मामले में दुष्कर्म को लेकर कोई जांच नहीं की थी और ना ही आरोपी पर अरुणा से हुए दुष्कर्म की कोई धारा लगाई थी। बाद में सोहनलाल 7 साल की सजा काट कर रिहा भी हो गया।

बाद में मंगेतर भी भूला लेकिन अस्पताल के डॉक्टरों और नर्सों ने खूब की देखभाल

उस बीच अरुणा शानबाग की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। जिस डॉक्टर से उनकी शादी होनी थी, वह मंगेतर रूप में कुछ सालों तक हालचाल जानने को पहुंचते रहे लेकिन बाद में वह भी अरुणा को भूल गए और आना-जाना छोड़ दिया।

अरुणा को देखने के लिए मुंबई में रहने वाली उनकी बहन भी आती थीं लेकिन फिर पूरे परिवार ने धीरे-धीरे एक जिंदा लाश बन चुकीं अरुणा से दूरी बना ली।  पिर तो अरुणा शानबाग किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल के वॉर्ड नंबर 4 के एक रूम में एक जिंदा मुर्दा की तरह करीब 42 साल तक पड़ी रहीं।

अस्पताल के ही डॉक्टरों और नर्स ने उन्हें अकेला नहीं पड़ने दिया और पूरे समय उनकी खिदमत करते रहे।

किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल के वॉर्ड नंबर 4 अस्पताल के इसी बिस्तर पर एक जिंदा लाश की तरह 42 सालों तक पड़ी रहीं थीं अरुणा शानबाग
किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल के वॉर्ड नंबर 4 अस्पताल के इसी बिस्तर पर एक जिंदा लाश की तरह 42 सालों तक पड़ी रहीं थीं अरुणा शानबाग

बीएमसी ने जिंदा लाश बनी अरुणा को हटाना चाहा तो स्टाफ अड़ गया, भावुकता भरा रहा आखिरी पल

लंबे समय तक किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल के वॉर्ड नंबर 4 अस्पताल के बिस्तर पर एक जिंदा लाश की तरह पड़ी रहने वाली अरुणा शानबाग का बीएमसी ने विरोध करते हुए कहा कि उसकी वजह से एक बिस्तर लगातार आकुपाई रह रहा है जोकि किसी दूसरे मरीज के काम आ सकता है।

तब अरुणा के परिवार की तरफ से कहा गया कि हम गरीब हैं और उसका इलाज नहीं करा सकते। बीएमसी अरुणा को अस्पताल से हटाना चाहती थी लेकिन उस अस्पताल के डॉक्टर और नर्सों ने इसका विरोध करते हुए कहा कि अरुणा शानबाग यहां से कहीं नहीं जाएगी।

उसके बाद मामला ऊपर तक गया और यह निर्णय लिया गया कि अरुणा शानबाग वहीं उसी बेड पर रहेंगी। फिर उसी अस्पताल की नर्सों ने उनकी देखभाल का जिम्मा उठाया।

जब नर्स उनको व्हील चेयर पर बाहर ले जाते थे तो लोग उनकी तरफ इशारा करते तो वह बैचेन हो जातीं। जिस वजह से यह फैसला लिया गया कि उनको कमरे में रखा जाए।

उस घटना के करीब 34 साल बाद एक पत्रकार ने अरुणा शानबाग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में इच्छामृत्यु की मांग की सुप्रीम कोर्ट ने इच्छामृत्यु देने से मना कर दिया। तब सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि संविधान के आर्टिकल 21 में जीने के अधिकार दिए गए हैं और ऐसे में किसी को इच्छामृत्यु की अनुमति देना उसका उल्लंघन होगा। साथ ही इच्छामृत्यु की अनुमति देना देश में सुसाइड के लिए बने कानून का भी उल्लंघन होगा।

फिर 18 मई 2015 को निमोनिया होने के कारण अरुणा शानबाग की उसी अस्पताल में मौत हो गईं, जहां पर वह नौकरी करती थी, जहां उनपर हमला हुआ, जहां उनका रेप हुआ और जहां के वॉर्ड नंबर 4 के एक बिस्तर पर उन्होंने 42 साल गुजारी। अरुणा की मौत के बाद उनकी दो रिश्तेदार उनका अंतिम संस्कार करने के लिए आगे आए लेकिन अस्पताल की नर्सों ने मना कर दिया कि ये हमारी रिश्तेदार हैं। फिर मामला पुलिस तक गया और आखिर में यह फैसला हुआ कि रिश्तेदार भी नर्सों के साथ उनके अंतिम संस्कार में शामिल हो सकती हैं।

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