चंपारण का भितिहरवा आश्रम, जहां तालिम के साथ आज भी दी जाती है हुनर की शिक्षा

चंपारण का भितिहरवा आश्रम, जहां तालिम के साथ दी जाती है हुनर की शिक्षा

Champaranराष्ट्रपिता के कदम जिन-जिन स्थानों पर पड़े वह धरती धन्य हो गयी. लेकिन कुछ स्थान ऐसे भी हैं जिसने वाकई राष्ट्रपिता को राष्ट्रपिता बनाया.

कहा जा  सकता है राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन में पश्चिम चंपारण का अहम स्थान है,

इसी धरती से उन्हे राष्ट्रीय पहचान मिली और आगे उन्हे राष्ट्रपिता के रुप पहचाना गया.

इसी चंपारण की धरती से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल फुंका था

और बुनियादी और रोजगार परक शिक्षा के लिए पहला विद्यालय की स्थापना की थी.

आजादी के बाद भी इस भितिहरवा आश्रम में आज भी  बुनियादी और रोजगारपरक की शिक्षा का अलख जारी है.

आज भी यहां बच्चों को तालिम के साथ हुनर सिखाया जा रहा है.

यहां प्रवेश करते ही एक अलग प्रकार का  नजारा देखने को मिलता है.

दरवाजे पर ही राष्ट्रपिता का संदेश लिखा मिलता है.

‘यदि युवक अच्छे तौर-तरीके नहीं सीखते हैं, तो उनकी सारी पढ़ाई बेकार है.

आप न्याय चाहते हैं तो दूसरों के साथ भी आपको न्याय बरतना होगा

इसी के नीचे एक और संदेश लिखा है  यदि आप न्याय चाहते हैं तो आप को भी दूसरों के प्रति न्याय बरतना होगा!!’ आपको

बताते चलें कि 1917 में संचालित चंपारण सत्याग्रह के दौरान महात्मा गांधी और कस्तूरबा गांधी ने आश्रम और स्कूल का निर्माण

भी करवाया था. भितिहरवा के वृंदावन में आज भी खपरैल कुटिया है, स्कूल की घंटी…वो टेबल जिसे बापू ने अपने हाथों से

बनाया था. कुंआ…जिसके पानी से कभी बापू अपनी प्यास बुझाते थे.

कस्तूबरा गांधी की चक्की. कुटिया के अंदर ‘बापू’ की याद दिलाती है.

राज कुमार शुक्ल के आग्रह पश्चिम चंपारण पहुंचे थें बापू

इतिहास के पन्नों में  चले तो. 27 अप्रैल1917 का दिन था. जब बापू राज कुमार शुक्ल के आग्रह पर पश्चिम चंपारण के

भितिहरवा गांव में पहुंचे.

भितिहरवा की दूरी नरकटियागंज से 16 किलोमीटर है. बेतिया से 54 किलोमीटर है. बापू यहां देवनंद सिंह,बीरबली जी के साथ पहुंचे.

बताया जाता है कि बापू सबसे पहले पटना पहुंचे थे. जहां वे डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के बंगले में रुके थे. वहां से आकर मोतिहारी में रुके. मोतिहारी से बेतिया आए.

बेतिया के बाद उनका अगला प्रवास कुमार बाग में हुआ. कुमार बाग से हाथी पर बैठकर बापू श्रीरामपुर भितिहरवा पहुंचे थे.

गांव के मठ के बाबा रामनारायण दास द्वारा बापू को आश्रम के लिए जमीन उपलब्ध करायी गई.

16 नवंबर 1917 को बापू ने यहां एक विद्यालय और एक कुटिया बनायी.

अंग्रेजों को गंवारा नहीं था,बापू का यहां आना, लगाई गयी थी कुटिया में आग 

बापू का यहां रहना ब्रिटिश अधिकारियों को बिल्कुल गंवारा नहीं था.

एक दिन बेलवा कोठी के एसी एमन साहब ने कोठी में आग लगवा दी.

साजिश  सोते हुए बापू की हत्या करवाने की थी, लेकिन इसे संयोग ही कहा जाएगा कि बापू उस दिन उस कुटिया में न

हीं सोकर पास के गांव में गए हुए थे. इसलिए बच गये.

बाद में लोगों ने पक्का कमरा बनवाया, जिसकी छत खपरैल है. इस कमरे के निर्माण में बापू ने अपने हाथों से श्रमदान किया.

नील आंदोलन का केन्द्र बिन्दू रहा है भितिहरवा आश्रम 

आपकों बताते चलें कि देश में बापू के दो प्रमुख आश्रम हैं, अहमदाबाद में साबरमती और महाराष्ट्र में वर्धा.

लेकिन भितिहरवा बापू की जिंदगी से जुड़े भावनात्मक और सामाजिक जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है.

नील वाला आंदोलन !! भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नील आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है

. जब अंग्रेजों द्वारा चंपारण में नील किसानों का शोषण हद से गुजर गया, तब उन्होंने गांधीजी से गुहार लगाई और

इस तरह नील आंदोलन की नींव पड़ी. अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में गांधी जी चंपारण के बारे कुछ ऐसा लिखते हैं !!

‘मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि यहाँ आने से पहले मैं चंपारण का नाम तक नहीं जानता था. नील की खेती होती है,

इसका खयाल भी नहीं के बराबर था. नील की गोटियां मैंने देखी थीं पर वे चंपारण में

बनती हैं और उनके कारण हजारों किसानों को कष्ट भोगना पड़ता है,इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं थी.

रिपोर्ट- अनिल कुमार सोनी 

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