बिहार गाथा-चचरी पूल पर चलती जिन्दगी, हाल ओबारा प्रखंड का

Aurangabad- जब देश में आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है. 74 वर्षों की आजादी में हमारी विकास की गति क्या रही, विकास का रुप और स्वरुप क्या रहा, इस पर विशद् चर्चा की जा रही है, तब ओबारा प्रखंड के मुहआंव और आसपास के दो दर्जन से अधिक गांवों के ग्रामीणों को साल का आठ महीने पुनपुन नदी पर चचरी पुल बनाकर कर देश-दुनिया से जुड़े रहने को विवश रहना, आजादी के बाद हमारी विकास की प्राथमिकता और उसकी दिशा और दशा पर सवाल जरुर खड़ा करती है.

बता दें कि इन दो दर्जन से अधिक गांवों के ग्रामीणों के लिए चचरी पुल ही एकमात्र सहारा है. साल में आठ महीने ग्रामीण पुनपुन नदी पर चचरी का पुल बनाकर ही आवागमन करते हैं. बरसात आने पर चचरी पूल को नदी में डूबने से बचाने के लिए इस पूल को भी खोल कर घर ले जाते हैं.

साल के चार महीने अघोषित कर्फ्यू में जीने को विवश ग्रामीण 

बरसात के चार महीनों में इन ग्रामीणों का दुनिया से संबंध टूट जाता है. वे अघोषित तौर पर अपने गांवों में कैद हो जाते है. बच्चों का स्कूल जाना तक बंद हो जाता है. लेकिन परेशानी तब और भी ज्यादा हो जाती है जब किसी के घर में कोई बीमार पड़ जाता है. तब इस विकास के दावे के बाद भी उनकी किस्मत में रह जाती है वही पुरानी और परम्परागत खाट. ग्रामीण इसी खाट पर अपने परिजन को टांग बाहर ले जाते हैं या किसी नीम हकीम के शरण में जाकर अपनी जान देने को विवश रहते हैं.

आजादी के इस अमृत महोत्सव के बीच किसी जनप्रतिनिधि या सरकारी महकमा ने इन ग्रामीणों के दर्द को जानने की कोशिश नहीं की. जबकि आजादी के 74 साल बाद भी ग्रामीणों को एक अदद पूल की तलाश जारी है.

रिपोर्ट- दीनानाथ

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