Ranchi : आज प्रेस क्लब रांची में “शिशु संरक्षण अधिनियम: अधिवक्ताओं और कानून पेशेवरों के साथ परामर्श” कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसमें शिशु सुरक्षा और संबंधित कानूनी मुद्दों पर गहन विचार-विमर्श किया गया। इस सम्मेलन में पालोना अभियान और आश्रयणी फाउंडेशन के संयुक्त तत्वावधान में कानूनी विशेषज्ञों, अधिवक्ताओं और कानून पेशेवरों ने भाग लिया और इस बात पर चर्चा की कि कैसे भारत में शिशु सुरक्षा को लेकर मौजूदा कानूनी ढांचे में सुधार की आवश्यकता है।
Ranchi : शिशु संरक्षण अधिनियम की आवश्यकता
कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य यह था कि शिशुहत्या, असुरक्षित परित्याग और से बचने वाले शिशुओं के लिए एक समर्पित और स्पष्ट शिशु संरक्षण अधिनियम की आवश्यकता पर प्रकाश डाला जाए। विशेषज्ञों ने माना कि मौजूदा कानूनों में शिशुओं के अधिकारों और उनकी सुरक्षा के लिए स्पष्ट प्रावधानों का अभाव है, जिससे न्याय की प्रक्रिया में देरी और अस्पष्टता उत्पन्न होती है।
भारत में शिशुहत्या और असुरक्षित परित्याग जैसे अपराधों के लिए कोई प्रभावी और विशेष कानूनी ढांचा नहीं है, जो शिशुओं के जीवन और सुरक्षा को सुनिश्चित कर सके। इस स्थिति में कानूनी सुधार की सख्त आवश्यकता महसूस की जाती है ताकि इन मामलों में त्वरित न्याय सुनिश्चित किया जा सके और शिशुओं के जीवन को खतरे से बचाया जा सके।
कार्यक्रम में मुख्य रूप से विशेषज्ञ के तौर पर कई वकीलों ने भाग लिया और अपने अपने विचार रखें कार्यक्रम में शामिल वकीलों में मुख्य रूप से गौरव पोद्दार, श्रीकांत कुमार, आरती वर्मा, रश्मि लाल, शिल्पी के अलावा त्रिभुवन शर्मा बाल संरक्षण कार्यकर्ता ने भाग लिया।
कार्यक्रम के उद्देश्य
परामर्श का मुख्य उद्देश्य था:
1. समर्पित शिशु संरक्षण अधिनियम की आवश्यकता पर चर्चा करना, जो विशेष रूप से शिशुओं के लिए कानूनी सुरक्षा प्रदान करे।
2. मौजूदा कानूनी ढांचे में मौजूद कानूनी अंतरालों की पहचान करना।
3. शिशु सुरक्षा से संबंधित मामलों में गहन और कठोर कानूनी प्रावधानों का सुझाव देना।
4. शिशु सुरक्षा से जुड़े मामलों को बेहतर तरीके से संभालने के लिए कानूनी मसौदा तैयार करना और उसका रोडमैप विकसित करना।
कानूनी चुनौतियाँ और सुधार की आवश्यकता
कानूनी विशेषज्ञों ने मौजूदा शिशु सुरक्षा कानूनों में कई गंभीर चुनौतियाँ रेखांकित कीं, जो इस प्रकार हैं:
1. कानूनी अस्पष्टता: वर्तमान में शिशु सुरक्षा के लिए कानूनों में स्पष्ट प्रावधानों का अभाव है, जिससे शिशुहत्या और परित्याग के मामलों में कानूनी प्रक्रिया अस्पष्ट और धीमी हो जाती है।
2. एफआईआर पंजीकरण में असंगतता: शिशुहत्या और असुरक्षित परित्याग से संबंधित मामलों में एफआईआर पंजीकरण के लिए मानकीकरण की कमी है। इसकी वजह से प्राथमिक रिपोर्टिंग में देरी होती है और जांच प्रक्रिया कमजोर हो जाती है।
3. विलंबित न्याय: शिशु सुरक्षा से जुड़े मामलों में न्याय का समय पर न मिलना, अक्सर जानकारी की कमी और प्रक्रिया में देरी के कारण होता है, जिससे शिकार शिशुओं के लिए न्याय प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है।
4. आईपीसी धारा 317 और 318 में ओवरलैप: आईपीसी की धारा 318 और 317 में शिशुहत्या और परित्याग से संबंधित मामलों के लिए ओवरलैप की स्थिति उत्पन्न होती है, जिससे कानूनी प्रक्रिया में अस्पष्टता और भ्रम पैदा होता है।
5. शिशु परित्याग के लिए कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं: हालांकि धारा 317 आईपीसी में 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के परित्याग से संबंधित प्रावधान हैं, लेकिन शिशुओं (0-1 वर्ष) के लिए कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं है।
6. सीमित जवाबदेही तंत्र: पुलिस जांच, मेडिकल हस्तक्षेप, और रिपोर्टिंग समयसीमा के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देशों की कमी के कारण जवाबदेही में बाधा उत्पन्न होती है।
7. प्रसवोत्तर मानसिक स्वास्थ्य प्रोटोकॉल का अभाव: नई माताओं के लिए मानसिक स्वास्थ्य जांच या सहायता के कानूनी प्रावधान नहीं होने के कारण प्रसवोत्तर अवसाद और संबंधित समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया जाता।
8. जागरूकता का अभाव: सुरक्षित आत्मसमर्पण विकल्पों के बारे में जनता का ज्ञान बहुत सीमित है, जिससे कई बार शिशु त्याग दिए जाते हैं।
सुझाव और समाधान
कार्यक्रम के दौरान यह सुझाव दिए गए कि:
एक समर्पित शिशु संरक्षण अधिनियम की आवश्यकता है, जो शिशुहत्या, असुरक्षित परित्याग, और गर्भपात से बचने वाले शिशुओं के लिए स्पष्ट कानूनी परिभाषाएँ और प्रावधान प्रदान करें।
समयबद्ध जांच और रिपोर्टिंग तंत्र को लागू किया जाए, ताकि त्वरित न्याय सुनिश्चित किया जा सके।
शिशुओं (0-1 वर्ष) के लिए विशेष कानूनी प्रावधानों की आवश्यकता है, जो उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं और कमजोरियों को संबोधित करें।
शिशु सुरक्षा मामलों से जुड़े स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के लिए चिकित्सा प्रोटोकॉल और जवाबदेही तंत्र का निर्माण किया जाए।
इस कार्यक्रम में कानूनी पेशेवरों और विशेषज्ञों ने एक मजबूत कानूनी आधार तैयार करने की आवश्यकता पर बल दिया, ताकि शिशुओं के अधिकारों की बेहतर रक्षा की जा सके और उनके जीवन की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके। इस परामर्श से यह स्पष्ट हुआ कि शिशु संरक्षण के मुद्दों पर तत्काल और प्रभावी कानूनी हस्तक्षेप की आवश्यकता है। कार्यक्रम को सफल बनाने में अमित सिंह और प्रोजेस दास ने प्रमुख भूमिका निभाई।