रांची: चंपई सोरेन की राजनीतिक कहानी आजकल एक पहेली बन गई है। जब वे झामुमो के चोटी के नेता थे, तब उनकी गिनती शेर की तरह होती थी। लेकिन जब से उन्होंने भाजपा की गोद में झाँका है, तब से उनकी स्थिति मछली के पानी से बाहर निकलने जैसी हो गई है। भाजपा ने हाल ही में अपने स्टार प्रचारकों की सूची जारी की, जिसमें चंपई का नाम 27वें स्थान पर रखा गया। यह स्थिति उन्हें बकरी की तरह पीछे धकेलने का काम कर रही है।
चंपई के लिए ये संकेत साफ हैं: “अभी तो तुमने हमें पहचानना शुरू किया है!” भाजपा ने चंपई के ऊपर बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा जैसे नेताओं को तवज्जो दी है। ऐसे में सवाल उठता है—क्या भाजपा चंपई से दूरी बनाने की योजना बना रही है? चंपई को यह समझ आ गया होगा कि “किसी का मुँह नहीं देखना” ही बेहतर होता है।
राजनीतिक पंडितों का मानना है कि चंपई सोरेन अब भाजपा के लिए एक लायबिलिटी बनते जा रहे हैं। पहले तो भाजपा ने उन्हें कोल्हान का टाइगर समझा, लेकिन अब लगता है कि टाइगर की दहाड़ में दम नहीं रह गया। उनकी वजह से भाजपा में बिखराव की स्थिति बन गई है, और पार्टी की नाव अब मंझधार में है।
भाजपा ने पहले चंपई को जश्न के साथ अपने में शामिल किया था, लेकिन अब लगता है कि “गिरते हैं तो क्यूं गिरते हैं, यह सोचने का वक्त नहीं है।” चंपई को टिकट बटवारे में भी कोई तवज्जो नहीं मिली। “साँप के मुँह में बिच्छू” की तरह उनकी स्थिति हो गई है—भाजपा का मुँह न खुल रहा है, और न ही चंपई की मुरादें पूरी हो रही हैं।
चंपई के लिए अब यह स्थिति एक सबक बन गई है। भाजपा के भीतर उन्हें देखकर लगता है, “किसी के पर कतरना आसान है, लेकिन अपने पंख काटने का हिम्मत नहीं।” यह साफ है कि चुनावी नतीजे 23 नवंबर को आएंगे, और तब यह देखना दिलचस्प होगा कि चंपई की राजनीतिक चाँदनी की रात कब लौटती है।
यही तो झारखंड की राजनीति है—यहाँ “कभी हँसते हैं, कभी रोते हैं” का खेल चलता है। चंपई सोरेन की कहानी में शायद हमें भी एक सीख मिलती है: “कभी-कभी दौड़ने से ज्यादा जरूरी होता है ठहरकर सोचना।” अब देखना यह है कि चंपई अपनी नई राह कहाँ तलाश करते हैं।