पटना/रांची: बिहार की राजनीति में इन दिनों महागठबंधन की एकजुटता को लेकर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। ताजा मामला झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) को लेकर है जिसे महागठबंधन की पटना में आयोजित समन्वय समिति की तीसरी बैठक में भी नहीं बुलाया गया। यह वही झामुमो है जो झारखंड में कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के साथ मिलकर सरकार चला रहा है। अब सवाल उठ रहा है कि क्या झारखंड में साथ सरकार चलाने वाले सहयोगियों के साथ बिहार में राजनीतिक दूरी बढ़ती जा रही है?
तेजस्वी यादव ने कुछ दिन पहले ही झामुमो को महागठबंधन में शामिल करने की बात कही थी, जिससे उम्मीदें जगी थीं। लेकिन ताजा घटनाक्रम से साफ हो गया कि बात अब भी सिर्फ बयानबाजी तक सीमित है। झामुमो के प्रवक्ता मनोज पांडे ने पुष्टि की कि पार्टी को बैठक की कोई सूचना नहीं दी गई और ना ही कोई औपचारिक निमंत्रण भेजा गया।
सियासत में उम्मीद बनाम हताशा का झामुमो मॉडल
मनोज पांडे ने भले ही सार्वजनिक रूप से निराशा की बात नहीं स्वीकारी हो, लेकिन पार्टी के भीतर नाराजगी साफ दिख रही है। झामुमो नेताओं का कहना है कि आरजेडी और कांग्रेस के शीर्ष नेताओं से बातचीत के बावजूद जमीन पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
वहीं झारखंड भाजपा ने इस मुद्दे पर झामुमो की आलोचना करते हुए कहा है कि पार्टी केवल खुद को तसल्ली देने का प्रयास कर रही है। भाजपा प्रवक्ता अवनीश कुमार सिंह ने कटाक्ष करते हुए कहा कि झारखंड में साझीदार और बिहार में ‘उपेक्षित’ — यही है झामुमो की वर्तमान राजनीतिक स्थिति।
झामुमो की दावेदारी और रणनीति
झामुमो बिहार की सीमावर्ती 14 सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा कर चुका है। इन सीटों में कटोरिया, चकाई, ठाकुरगंज, रानीगंज, कोचाधामन, जमालपुर, मनिहारी जैसी विधानसभा क्षेत्र शामिल हैं जहां झारखंडी पहचान, भाषा और सांस्कृतिक प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखते हैं।
पार्टी के वरिष्ठ नेता विनोद पांडे और सुप्रियो भट्टाचार्य पहले ही कह चुके हैं कि इन क्षेत्रों में झामुमो की उपस्थिति महागठबंधन को मजबूत कर सकती है। लेकिन लगातार हो रही अनदेखी से पार्टी अब स्वतंत्र रणनीति पर विचार करने लगी है।
महागठबंधन की अंदरूनी खींचतान
झामुमो को दरकिनार करने की एक बड़ी वजह महागठबंधन में सीट बंटवारे को लेकर चल रही अंदरूनी खींचतान मानी जा रही है। कांग्रेस और आरजेडी के बीच पहले से ही सीटों को लेकर असहमति बनी हुई है। कांग्रेस पिछली बार 70 सीटों पर लड़ी थी और सिर्फ 19 सीटें जीत पाई थी। अब वह मनमाफिक सीटों की मांग कर रही है, वहीं आरजेडी खराब स्ट्राइक रेट का हवाला देकर उसे कम सीटें देना चाहती है।
वीआईपी और लेफ्ट पार्टियां भी सीटों को लेकर आक्रामक रुख अपनाए हुए हैं। ऐसे में झामुमो को महागठबंधन में शामिल करने से सीट बंटवारे का संतुलन और ज्यादा बिगड़ सकता है।
क्या झामुमो लड़ेगा अकेले चुनाव?
झामुमो नेताओं के सुर अब धीरे-धीरे बदल रहे हैं। भले ही औपचारिक तौर पर गठबंधन से अलग होने की घोषणा नहीं हुई है, लेकिन पार्टी के तेवर इस ओर संकेत दे रहे हैं कि अगर सम्मानजनक जगह नहीं मिली तो वह बिहार चुनाव में अकेले उतरने का निर्णय कर सकती है।
यदि ऐसा होता है तो इसका असर झारखंड की राजनीति पर भी पड़ सकता है, जहां झामुमो आरजेडी और कांग्रेस के साथ सरकार चला रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बिहार में झामुमो की उपेक्षा का असर झारखंड की सत्ता संरचना पर भी पड़ सकता है।
फिलहाल तस्वीर धुंधली, फैसले की घड़ी निकट
बिहार विधानसभा चुनाव में अब केवल चार महीने का वक्त बचा है और महागठबंधन के भीतर समन्वय का अभाव खुलकर सामने आने लगा है। झामुमो जहां अभी भी आशा का दामन थामे बैठा है, वहीं महागठबंधन के भीतर उसे लेकर स्पष्टता का अभाव उसकी भूमिका को संदिग्ध बना रहा है।
अब देखना है कि तेजस्वी यादव अंतिम समय में कोई सियासी संतुलन बनाते हैं या झामुमो को सचमुच अकेले राह पकड़नी पड़ती है। इस सियासी पटकथा का अंत क्या होगा, यह आने वाले हफ्तों में साफ हो जाएगा।
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