रांची : भगवान बिरसा मुंडा की पुण्यतिथि- स्वतंत्रता संग्राम के अजेय योद्धा भगवान बिरसा मुंडा का
जन्म 15 नवम्बर 1875 में छोटे किसान के गरीब परिवार में हुआ था.
उन्होंने 25 वर्ष की उम्र में ही अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिये थे.
बिरसा मुंडा को 1900 में आदिवासी लोगों को संगठित देखकर ब्रिटिश सरकार ने
आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया तथा उन्हें 2 साल का दण्ड दिया.
उन्होंने जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए अपने प्राण की आहूति दे दी.
वे स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे नायक थे, जिनकी वीरता और शौर्य के किस्से आज भी रोमांचित करते हैं.
धरती आबा की जन्मस्थली उलिहातू से लेकर कर्मस्थली बंदगांव,
उनके अदम्य साहस की कहानी बयां करती है.
डोंबारी बुरु की पहाड़ियां, रांची जेल का वह कमरा जहां
उन्होंने अंतिम सांस ली और राजधानी के कोकर का समाधि स्थल इस वीर का क्रांति पथ है.
अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने के लिये लोगों का किया नेतृत्व
उन्होंने साल्गा गांव में प्रारम्भिक पढाई के बाद इन्होंने चाईबासा
जीईएल चर्च (गोस्नर एवंजिलकल लुथार) विद्यालय में पढ़ाई की.
ब्रिटिश शासकों द्वारा शोषित अपने समाज की बुरी दशा पर वह सदैव चिंतित रहते थे.
उन्होंने मुंडा लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने के लिये नेतृत्व किया.
1894 में मानसून न आने से नागपुर छोटा नागपुर में भयंकर अकाल
और महामारी फैली हुई थी. बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की.
लगान माफी के लिये किया आंदोलन
1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजों से लगान (कर) माफी के लिये आन्दोलन किया. 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी. लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और जिससे उन्होंने अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया. उन्हें उस इलाके के लोग ष्धरती आबाष्के नाम से पुकारा और पूजा करते थे. उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी.
अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया
1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था. अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला. 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियाँ हुईं.
9 जून 1900 ई. को रांची कारागार में ली अंतिम सांस
जनवरी 1900 डोम्बरी पहाड़ पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत सी औरतें व बच्चे मारे गये थे. उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे. बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियां भी हुईं. अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर के जमकोपाई जंगल से अंग्रेजों द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया. बिरसा ने अपनी अन्तिम सांसें 9 जून 1900 ई. को अंग्रेजों ने जहर देकर मारा. 1900 को रांची कारागार में अंतिम सांस ली.
आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है. बिरसा मुण्डा की समाधि राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है. वहीं उनका स्टेच्यू भी लगा है. उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा अंतरराष्ट्रीय विमानक्षेत्र भी है.
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