डिजीटल डेस्क : RSS के सरसंघचालक बोले – दुनिया शक्ति देखती है, उसको स्वीकार करती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रमुख यानी सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने विजयादशमी उत्सव पर अपने अध्यक्षीय संबोधन में देशवासियों को सबल बनने की सीख दी। बुद्धि में, बल और पुरषार्थ में सबल बनने को कहा ताकि दुनिया भारत की बात को बेहिचक स्वीकारे।
डॉ. भागवत ने कहा कि – दुनिया की रीति है…सत्य भी है…दुनिया शक्ति देखती है उसके पीछे की…उसको स्वीकार करती है।
संघ प्रमुख बोले – दुर्बल धर्म का वहन नहीं कर सकता
इसी क्रम में संघ प्रमुख डॉ. भागवत ने आगे कहा कि – ‘…संयत व्यवहार करना सीखें क्योंकि सब बातों के परे-ऊपर एकात्मता, सद्भाव और सद्व्यवहार का गुण है। यह किसी भी काल में किसी भी राष्ट्र के लिए परम सत्य है तथा मनुष्यों के अस्तित्व एवं सहजीवन का एकमात्र उपाय है।
और ऐसे चलना है तो शक्ति चाहिए क्योंकि दुर्बल धर्म का वहन नहीं कर सकता। अध्यात्म की साधना बलहीनों को नहीं होता।
ये सारा करना है तो दुनिया में तरह-तरह की परिस्थिति है, सशक्त समाज इसको कर सकता है। जो नहीं करते, वे अपने आपको कितना भी बलवान बताते होंगे, कुछ दुर्बलता उनके अंदर छिपी है’।
संघ प्रमुख ने याद दिलाया – निर्बल भारत और भारतीयों का बहुत अपमान होता था
सबल और शक्तिमान होने की महत्ता को बताते हुए सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने अपने संदेश में कहा कि – ‘दुनिया की रीति है… वह शक्ति देखती है…उसी को स्वीकार करती है।
…जब भारतवर्ष गिनने लायक बल नहीं रखता था तो हमारे कितने अपमान होते थे ? हमारे लोगों को कैसे निकाला जाता था?
…अब भारतवर्ष की शक्ति बढ़ गई है तो मान भी बढ़ गया है…भारतवर्ष के नागरिकों की प्रतिष्ठा भी बढ़ गई है…भारतवर्ष जितना बढ़ेगा, उतना उसकी बातें स्वीकार होगी’।
डॉ. मोहन भागवत बोले – संघ शील संपन्न शक्ति की आराधना करता है ताकि विश्व में सद्भावना-शांति हो
शक्ति की जरूरत के साथ ही उसके सदुपयोग पर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने अपनी बात प्रमुखता से रखी। उसे इस अंदाज में कहा कि राष्ट्र-धर्म निभाने वाले देश के राजनेताओं के लिए उसमें काफी गूढ़ संदेश निहित था।
डॉ. भागवत बोले – ‘… बातें सत्य हैं…सबके लिए हैं… सद्भावना परिपूर्ण हैं…पर उसकी स्वीकार्यता के लिए शक्ति संपन्न बनना पड़ेगा। …ये आज के जगत की रीति है। …इसलिए शक्ति की साधना…दुर्बल नहीं रहना…।
शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक सब प्रकार का बल चाहिए, संगठित समाज का बल चाहिए। उसी की साधना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ करता है।
परंतु शक्ति को दिशा चाहिए। दिशाहीनों की शक्ति उपद्रव करती है।
और इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में बल के साथ शील की साधना होती है। शील संपन्न शक्ति विश्व में सद्भावना और शांति का आधार बनती है’।