चुनावी मुद्दों की भटकती आत्मा और व्यथा

चुनावी मुद्दों की भटकती आत्मा और व्यथा

रांची: चुनाव के मौसम में जब भी मैं, चुनावी मुद्दों की आत्मा, जागती हूं, तो पाती हूं कि मेरी भटकती सहेलियां भी मेरे साथ हैं। हम सब एक दीवार के साए में बैठकर अपनी व्यथा साझा कर रहे हैं—हर एक आत्मा अपने दर्द और संघर्ष की कहानी सुनाती है।

“मैं स्वास्थ्य की आत्मा हूं,” एक साथी कहती है। “हर साल 25 हजार लोग इलाज के लिए दूसरे राज्यों में जाते हैं। सरकारी अस्पतालों की स्थिति इतनी बुरी है कि अगर मैं वहां गई, तो खुद को वेंटिलेटर पर पाऊंगी। 24 साल बाद भी स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ है।” उसकी बातें सुनकर हम सब की आंखों में आंसू आ जाते हैं।

दूसरी आत्मा, जो बेरोजगारी का दर्द लिए घूम रही है, कहती है, “पौने तीन लाख सरकारी पद खाली हैं। अगर इन्हें भरा जाए, तो कितनों को रोजगार मिल जाएगा। लेकिन चुनावों के बाद मेरी आवाज खो जाती है। क्या मैं सिर्फ एक संख्या हूं?”

मानव तस्करी की आत्मा अपनी कहानी सुनाती है, “हमारी बेटियां, हमारे नाबालिग, दूसरे राज्यों में बिक रहे हैं। 2005 से अब तक 3,839 नाबालिगों की तस्करी हो चुकी है। क्या हम सच में अपनी बेटियों की कीमत कुछ हजारों में आंक सकते हैं?” उसके शब्दों में एक दर्द है जो हम सब को छू जाता है।

“मैं शिक्षा की आत्मा हूं,” एक और साथी बोलती है। “उच्च शिक्षण संस्थान तो खुले हैं, लेकिन फिर भी हर साल 25 हजार छात्र बाहर जा रहे हैं। क्या हमें अपनी प्रतिभा को यहां नहीं रोकना चाहिए?”

भ्रष्टाचार की आत्मा, जो हमेशा से हमारी आंखों में खटकती रही है, कहती है, “झारखंड में मेरी पहचान हर गली-कूचे में फैली हुई है। पिछले दो सालों में 5000 करोड़ का घोटाला हो चुका है। क्या यही वो बदलाव है जिसका हमें इंतजार था?”

हम सब एक साथ सोचते हैं, “हमें मुक्ति देने के लिए कौन सा फरिश्ता आएगा?” क्या वह कोई नेता होगा, जो हमारी भटकती आत्माओं को सुन सकेगा? या फिर हम हमेशा इसी तरह भटकते रहेंगे, असंतुष्ट आत्माओं की तरह?

यह सवाल हमें हमेशा परेशान करता है। क्या चुनावी मुद्दों की यह भटकती आत्मा कभी किसी सुनहरे भविष्य की ओर बढ़ सकेगी? क्या कोई दिन आएगा जब हमारी आवाज सुनी जाएगी, और हमारी समस्याओं का समाधान होगा?

हम सब मिलकर उम्मीद करते हैं कि जल्द ही कोई आएगा—कोई फरिश्ता जो हमारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा।

 

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