कुर्मी वोटरों के सहारे क्या रामटहल करेंगे कमाल या होगा 2019 वाला हाल…….

उदय शंकर-पॉलिटिकल एडिटर

कुर्मी फैक्टर, जाति या प्रत्याशी आख़िर क्या देखते हैं रांची लोकसभा के वोटर जानिये तथ्य और आंकड़े

Ranchi- रांची लोकसभा इस बार फिर चर्चा में हैं, चर्चा में होने की वजह काग्रेंस उम्मीदवार पर सस्पेंस का होना है, बड़ा सवाल ये है कि रांची से उम्मीदवार सुबोधकांत सहाय होंगे या फिर ऐन चुनाव से पहले कांग्रेस ज्वाइन करनेवाले 5 बार के सांसद रामटहल चौधरी, रामटहल चौधरी का पिछली बार बीजेपी ने टिकट काट दिया था, लेकिन इसके बावजूद वो बागी बनकर चुनावी मैदान में उतरे।

उनके कुर्मी समुदाय से होने और कुर्मी वोटरों पर पकड़ की चर्चा खूब हुई लेकिन जब चुनाव परिणाम आये तो उन्हें मिले महज 30 हजार वोटों ने उन्हें सीधे आसमांन से जमीन पर ला दिया, वहीं दूसरी तरफ संजय सेठ ने काग्रेंस प्रत्याशी सुबोधकांत सहाय को 2 लाख 83 हजार वोटों के अंतर से हराकर नया रिकार्ड कायम कर दिया था।

संजय सेठ की इस जीत ने सारे समीकरणों को ध्वस्त कर दिया था, इसके बावजूद एक बार फिर कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर रामटहल चौधरी की चर्चा हो रही है और ये दावा किया जा रहा है की कुर्मी वोटरों पर उनकी काफी बेहतर पकड़ है, तो आइये जरा हम भी रांची के समीकरणों के समझने का प्रयास करते है।

1952 में पहली बार कांग्रेस के अब्दुल इब्राहिम सांसद बने थे

सबसे पहले रांची लोकसभा के इतिहास पर गौर किया जाए तो 1952 में कांग्रेस के टिकट पर अब्दुल इब्राहिम सांसद बने फिर 1957 में निर्दलीय मीनू मसानी को यहां की जनता से लोकसभा में भेजा, फिर काग्रेंस बंगाली समुदाय के पीके के घोष लगातार 3 बार यहां से सांसद रहे, 1977 में जनता पार्टी से रवीन्द्र वर्मा सांसद चुने गये तो 1980 और 1984 में काग्रेंस के शिवप्रसाद साहू लगातार दो बार सांसद चुने गये।

1989 में पहली बार सुबोधकांत सहाय ने जनता दल से जीत हासिल की, उसके बाद 1991, 1996, 1998 और 1999 के चुनाव में लगातार बीजेपी के टिकट पर रामटहल चौधरी जीतते रहे, फिर 2004 और 2009 में सुबोधकांत सहाय ने दो बार यहां से जीत हासिल की, इस तरह देखा जाय तो सबसे पहले मतदाताओं ने मुस्लिम प्रत्याशी को चुना फिर पारसी समुदाय से आने वाले मीनू मसानी, फिर बंगाली कायस्थ पीके घोष, एक बार पिछड़े समुदाय से रवीन्द्र वर्मा फिर साहू बनिया समाज से शिवप्रसाद साहू और उसके बाद कायस्थ समुदाय के सुबोधकांत सहाय ने यहां का प्रतिनिधित्व किया।

तीन बार हार का मजा चख चुके हैं रामटहल चौधरी

आज अगर रामटहल चौधरी खुद को कुर्मी समुदाय का नेता बताकर हवा बना रहे हैं तो बड़ा सवाल ये है कि अगर रामटहल चौधरी का इतना ही जनाधार होता तो वो 1984 में शिवप्रसाद साहू और उसके बाद 1989 फिर 2004 और 2009 में सुबोधकांत के हाथों तीन बार सीट नहीं हारते, इन आंकड़ों पर गौर करने पर यही साबित होता है की रामटहल चौधरी का दावा जमीन पर नहीं टिकता , क्योंकि 2014 में जब सुदेश महतो रांची लोकसभा से चुनाव लड़े थे तो उस वक्त भी रामटहल चौधरी के होने के बावजूद वो 1 लाख 35 हजार वोट लेकर आये थे, जो उस समय हुये कुल मतदान का लगभग 13 प्रतिशत था।

ऐसे में यही कहा जा सकता है की रामटहल चौधरी का दावा कहीं नही टिकता और रांची लोकसभा के मतदाता जाति देखकर नहीं प्रत्याशी देखकर वोट करते है, और रामटहल चौधरी जितनी बार भी जीते वो जीत उनकी न होकर बीजेपी की रही क्योंकी 2019 में जनता ने उन्हें सिर्फ 30 हजार वोटों में समेट दिया और वो अपनी जमानत तक नहीं बचा पाये थे, ऐसे में 82 वर्ष के रामटहल चौधरी पर दांव खेलते काग्रेंस अगर नैया पार होने की उम्मीद रखती है तो फिर नाकामयाबी ही हाथ आने के आसार हैं।

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