रांची: झारखंड विधानसभा चुनाव में धर्म और जाति के नाम पर ध्रुवीकरण का खेल एक बार फिर सजीव हो गया है, और इस बार राजनीतिक दलों की पूरी नज़र ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) वोटर्स पर है। राहुल गांधी की सभाओं से लेकर विभिन्न पार्टियों के चुनावी वादों तक, ओबीसी समुदाय को ध्यान में रखकर ही पूरा चुनावी अभियान संचालित हो रहा है। लेकिन सवाल उठता है – क्या ओबीसी वोटर्स का यह ध्यान चुनावी मुद्दों का हिस्सा बन सकता है या फिर सिर्फ एक और चुनावी हथकंडा साबित होगा?
राजनीतिक दलों ने हमेशा की तरह जातिवाद के कार्ड को खेलते हुए ओबीसी को अपना सबसे अहम वोट बैंक बनाने की रणनीति अपनाई है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पहले चरण के मतदान वाले क्षेत्रों में चार सभाएं कीं, और चुनाव की घोषणा से पहले संविधान सम्मान समारोह में शिरकत की, जहां उनका मुख्य फोकस ओबीसी था। उनका यह कदम किसी बड़े चुनावी मसले की ओर इशारा करता है, क्योंकि राज्य की 81 सीटों में से 44 सीटें अनारक्षित हैं और ओबीसी वोटर्स की संख्या इनमें अधिक है। जाहिर है, इस बार चुनावी खेल ओबीसी वोटों के इर्द-गिर्द घूमता नजर आ रहा है।
झारखंड के 2000 में राज्य का गठन होने के बाद से चार विधानसभा चुनाव हो चुके हैं और इन चुनावों में औसतन 57 प्रतिशत सीटों पर ओबीसी विधायकों का कब्जा रहा है। यह आंकड़ा राजनीतिक दलों को साफ संदेश देता है कि ओबीसी समुदाय की वोटिंग दिशा, चुनावी परिणामों को प्रभावित कर सकती है। इसलिए, अब ओबीसी को लुभाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। हर पार्टी ओबीसी वोटों के सहारे अपने चुनावी समीकरण को ताकतवर बनाने में जुटी है। लेकिन क्या यह सब वादों और योजनाओं से ज्यादा कुछ है? या फिर यह सिर्फ वोटबैंक की राजनीति का हिस्सा है?
झारखंड में अनुसूचित जाति (SC) के लिए 9 और अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए 28 सीटें आरक्षित हैं, बाकी 44 सीटों पर ओबीसी वोटर्स की संख्या अहम है। यह उन सीटों का चुनावी समीकरण है, जिनकी दिशा ओबीसी वोटर्स तय करेंगे। जब राजनीतिक दलों के लिए ये सीटें ‘जीतने’ के लिए महत्वपूर्ण हैं, तो क्या उन्हें ओबीसी की असल समस्याओं की समझ है या वे सिर्फ उनका उपयोग एक चुनावी खेल के रूप में कर रहे हैं?
ओबीसी समुदाय की मुख्य समस्याएं – जैसे रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, और सामाजिक न्याय – अक्सर चुनावी वादों में छिपी रहती हैं, जबकि वास्तविकता में इन मुद्दों पर काम बेहद सीमित होता है। क्या ओबीसी को सिर्फ वोट के रूप में देखा जाएगा या उनकी वास्तविक समस्याओं का समाधान होगा? यह सवाल राजनीतिक दलों के लिए चुनौती बना हुआ है। चुनाव के बाद जनता की आँखों में वह सवाल फिर होगा – क्या बदलाव आया या फिर वही पुरानी राजनीति?
राजनीति के इस खेल में ओबीसी समुदाय को अब अपना निर्णय खुद लेना होगा कि वे अपने वोट का इस्तेमाल कैसे करते हैं। क्या वे सिर्फ चुनावी नारे और वादों के जरिए राजनीतिक दलों को चुनेंगे, या फिर अपने हक के लिए अपने अधिकारों की मांग करेंगे? इस बार का चुनाव इस बात का गवाह बनेगा कि झारखंड का ओबीसी समुदाय असली बदलाव के लिए वोट करता है, या सिर्फ वोटबैंक की राजनीति का हिस्सा बनकर रह जाता है।