रांची: झारखंड की सियासत में इन दिनों झामुमो का सितारा बुलंद है और आजसू का सूरज ढलता नजर आ रहा है। हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनाव के नतीजों ने झामुमो की स्वीकार्यता में चार चांद लगा दिए हैं। वोट प्रतिशत और सीटों की संख्या में हुई बढ़ोतरी ने साबित कर दिया है कि झामुमो की राजनीतिक पतंग ऊंची उड़ान भर रही है। वहीं, आजसू पार्टी की हालत कुछ ऐसी हो गई है कि न नाव में दम बचा है, न पतवार संभल रही है।
आजसू पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद दल के कई नेताओं की नींव हिल चुकी है। यह कहना गलत नहीं होगा कि “चुनावी थपेड़े खाने के बाद आजसू की दीवारें दरकने लगी हैं।” सबसे बड़ा झटका तब लगा जब पार्टी के संस्थापकों में से एक, स्वर्गीय कमल किशोर भगत की पत्नी नीरू शांति भगत ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया। लोहरदगा में चुनावी शिकस्त के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से मुलाकात कर सियासी हलकों में खलबली मचा दी। संभावना है कि जल्द ही वह झामुमो की छतरी तले राजनीति की नई पारी शुरू करेंगी।
इधर, एनडीए के भीतर भी आजसू की अहमियत पर पुनर्विचार हो रहा है। “घर का जोगी जोगड़ा और बाहर का साधु सोना” की तर्ज पर भाजपा ने चुनाव के दौरान आजसू को सिर पर बैठाया, लेकिन इसका खामियाजा खुद भाजपा को भुगतना पड़ा। नतीजा यह हुआ कि कुरमी समुदाय, जो झारखंड की राजनीति में प्रभावी है, नेतृत्व के बिना छला हुआ महसूस कर रहा है।
आजसू की नाव भले ही मझधार में फंसी हो, लेकिन झामुमो के खेवनहार हेमंत सोरेन अपनी सूझबूझ से पार्टी की कश्ती किनारे लगा रहे हैं। “सियासी चालें और जनता का समर्थन”, इस तिकड़म से झामुमो ने अपार बहुमत हासिल कर यह साबित कर दिया है कि उनकी राजनीति की जड़ें मजबूत हो रही हैं।
झारखंड की सियासी बिसात पर जहां झामुमो का हाथी हर चाल जीत रहा है, वहीं आजसू के प्यादे लगातार मात खा रहे हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि “डूबते को तिनके का सहारा” वाली स्थिति में आजसू पार्टी अपने भविष्य की दिशा कैसे तय करती है।