डिजीटल डेस्क : क्रिश्चियन वोटरों को लेकर दलों की खामोशी के भी अपने मायने हैं झारखंड विधानसभा चुनाव में। इस झारखंड में हो रहे विधानसभा चुनाव के दौरान जो चुनिंदा बातें चौंकाने वाली देखी जा रही हैं, उनमें कुछ बुनियादी बातें अहम हैं। इनमें से एक अहम है क्रिश्चियन वोटरों से जुड़े मसले पर सभी प्रतिस्पर्धी राजनीतिक दलों की खामोशी।
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पूरा सियासी मिजाज बदला-बदला नजर आ रहा है। इस बार न तो भाजपा इन क्रिश्चियन यानी ईसाई वोटर की बात कर रही है और ना ही हेमंत सोरेन की जेएमएम पार्टी। कोई इन पर खुलकर नहीं बोल रहा और इनसे इतर सारी बातें हो रही हैं।
चौंकाने वाले अंदाज में क्रिश्चियन वोटर भी है खामोश…
रोचक बात यह है कि यह तब है जब झारखंड की इन वोटरों की आबादी नंबर 3 पर है और ये हाशिए पर कत्तई नहीं है। यही नहीं, दलों की बात छोड़ दें तो खुद ईसाई समुदाय वाले वोटर भी पूरे चुनावी माहौल में खामोशी ओढ़े हुए हैं और सियासी ताने-बाने को निहारने में जुटे हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि किंगमेकर की भूमिका निभाने वाली क्रिश्चियन कम्युनिटी इस बार किस तरफ है?

झारखंड के आदिवासी बहुल इलाकों में क्रिश्चियन वोटरों की है असली बसावट
ऐसे में अब सवाल है कि क्या क्रिश्चियन वोटर इस बार के चुनाव में अहम नहीं रहे? इसका जवाब सीधे तौर पर ना नहीं हो सकता। वजह साफ है। झारखंड में क्रिश्चियन वोटर हिंदू और मुस्लिम के बाद तीसरी सबसे बड़ी आबादी वाले मतदाता हैं। पिछले 13 वर्षों में इस संख्या के बढ़ने की बात कही जा रही है।
वर्ष 2011 में हुई जनगणना के मुताबिक, झारखंड में क्रिश्चियन की आबादी करीब 4.3 प्रतिशत के आसपास है। झारखंड में सिमडेगा, गुमला और खूंटी जिला ईसाई बहुल है। इसमें भी सिमडेगा में करीब 51 प्रतिशत आबादी ईसाईयों की है। इसी क्रम में खास बात यह है कि झारखंड में दलित और आदिवासी समुदाय के अधिकांश लोग धर्म परिवर्तन कर क्रिश्चियन बने हैं।

झारखंडी सियासत में दबंग तो नहीं लेकिन दबंग से कम नहीं और किंगमेकर रहे हैं क्रिश्चियन वोटर…
झारखंड की सियासत में यही क्रिश्चियन वोटर अन्य तबके की तुलना में खुद को कभी दबंग रूप में नहीं आंका। लेकिन इसका मतलब यह कत्तई नहीं कि यह एकदम महत्वहीन या कमजोर हैं। ये यहां किंगमेकर की भूमिका में रहते रहे हैं।
एक बानगी से इसे आसानी से समझा जा सकता है। बीते विधानसभा चुनाव के बाद दिसंबर 2019 में जब हेमंत सोरेन गठबंधन को झारखंड में जनादेश मिला, तो हेमंत सोरेन सबसे पहले रांची के पुरुलिया रोड स्थित कार्डिनल हाउस पहुंचे थे। वहां हेमंत सोरेन आर्च बिशप फेलिक्स टोप्पो से आशीर्वाद लेने पहुंचे थे।
उनके इस कदम की उस समय भाजपा ने आलोचना की थी और यहां तक कह दिया था कि हेमंत सरकार मिशनरी के इशारे पर चलने वाली है। लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव में तस्वीर दोनों ही सियासी खेमे के अंदाज के चलते एकदम अलग है।

झारखंड की सियासत में काफी मायने रखती हैं क्रिश्चियन वोटरों की बुहलता वाली रिजर्व सीटें…
मोटे तौर पर झारखंड विधानसभा की करीब 10 प्रतिशत सीटों पर ईसाई समुदाय का दबदबा माना जाता है। इनमें सिमडेगा की 2, खूंटी की 2 और गुमला की 3 सीटें प्रमुख रूप से शामिल हैं। रोचक तथ्य यह है कि जिन सीटों पर क्रिश्चियर वोटर फैक्टर हावी है, वो सभी सीटें आदिवासियों के लिए रिजर्व हैं।
विधानसभा की 81 सीटों वाली झारखंड में सरकार बनाने के लिए 42 विधायकों की जरूरत होती है। ऐसे में ईसाई बहुल सीटें काफी मायने रखती हैं। सिमडेगा और गुमला की 5 सीटों पर तो ईसाई समुदाय ही जीत और हार में बड़ी भूमिका निभाते रहे हैं। गत बार यानी वर्ष 2019 के चुनाव में इनमें से 5 सीटों पर कांग्रेस और जेएमएम ने जीत हासिल की थी।

क्रिश्चियन वोटरों को लेकर दलों की चुप्पी की कुछ खास वजहें भी हैं…
ऐसे में सवाल उठता है कि इतने अहम क्रिश्चियन वोटरों को लेकर झारखंड की सत्ता की दौड़ में जुटे सियासी दलों के धड़े चुप क्यों हैं ? इसकी पृष्ठभूमि को भी समझना जरूरी है।
वर्ष 2014 में जब रघुबर दास की अगुवाई वाली भाजपा की सरकार राज्य में बनी तो मिशनरी के खिलाफ सख्ती से कार्रवाई शुरू हुई थी। उस दौरान चर्च और उससे जुड़े संगठनों में छापेमारी और दंडात्मक कार्रवाई भी हुई तो नाराज होकर क्रिश्चियन वोटरों का झुकाव जेएमएम की अगुवाई वाले मौजूदा सत्ताधारी गठबंधन के दलों की ओर हुआ।
उसके चलते बीते विधानसभा चुनाव में वर्ष 2019 में भाजपा को सत्ता से बाहर होना पड़ा। तब हालत यह हुई थी कि ईसाई बहुल इलाकों में भाजपा बुरी तरह हार गई और क्रिश्चियन समुदाय से ताल्लुक रखने वाले भाजपा नेता लुईस मरांडी तक की सीट नहीं बच पाई।
उसके बाद इस साल हुए लोकसभा चुनाव में भी भादपा ने क्रिश्चियन मशीनरी के खिलाफ बिगुल फूंका और उस चुनाव में भी ईसाई बहुल इलाकों में भाजपा की हार हो गई थी।
इस बार हो रहे झारखंड में विधानसभा चुनाव की घोषणा से पहले ईसाई संगठनों ने रांची और गु्मला के अलग-अलगा इलाकों में बैठकें की थी। उन बैठकों में धर्मगुरुओं के साथ मिलकर समुदाय के लोगों ने जो चर्चा की उसी को आधार मानकर आंका जा रहा है कि इस विधानसभा चुनाव में क्रिश्चियन वोटर चुपचाप अपने लिए सुरक्षा को सबसे बड़ा मुद्दा मानते हुए पक्ष-विपक्ष पर बराबर निगाह बनाए हुए है।