Saturday, June 28, 2025

Latest News

Related Posts

राजनीति के रंग: झारखंड बंटेगा या सियासत चमकेगी?

रांची: झारखंड की राजनीति के बहुत से रंग हैं, और जनता उन रंगों से अभी भी अनजान है। ठीक वैसे ही जैसे 1905 में बंगाल विभाजन हुआ था और उसे ब्रिटिश हुकूमत ने प्रशासनिक सुधार का नाम दिया था, लेकिन असल में वह ‘फूट डालो और राज करो’ नीति का हिस्सा था। आज, संताल परगना को अलग राज्य बनाने की मांग भी कहीं ना कहीं उसी इतिहास की पुनरावृत्ति की गूंज लगती है।

बीते दिनों, लोकसभा में गोड्डा के सांसद निशिकांत दुबे के बयान से झारखंड की राजनीति में भूचाल आ गया। उन्होंने संताल परगना को अलग राज्य बनाने और झारखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग कर डाली। भाजपा सांसद के इस बयान के बाद झारखंड का सियासी तापमान गर्म हो गया, वैसे ही जैसे कभी बंगाल विभाजन के दौरान भारतीयों के बीच असंतोष भड़क गया था।

संताल परगना: मुद्दा विकास का या वोटबैंक का?

अगर झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की बात करें तो वह इसे भाजपा की चुनावी रणनीति मानता है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इसे ‘सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की साजिश’ करार दिया। झामुमो का दावा है कि भाजपा इस मुद्दे को हवा देकर आदिवासी और गैर-आदिवासी वर्गों के बीच तनाव पैदा करना चाहती है, जिससे राजनीतिक लाभ उठाया जा सके। लेकिन दूसरी ओर भाजपा सांसद निशिकांत दुबे इसे बांग्लादेशी घुसपैठ का नतीजा बताते हैं।

निशिकांत दुबे का तर्क है कि संताल परगना की डेमोग्राफी तेजी से बदल रही है। वह 1951 और 2011 की जनगणना का हवाला देते हुए कहते हैं कि इस इलाके में आदिवासियों की संख्या घट रही है और मुस्लिम आबादी में इजाफा हो रहा है। ठीक वैसे ही जैसे 1905 में बंगाल विभाजन के समय ‘प्रशासनिक सुधार’ का तर्क दिया गया था, लेकिन असल में उसमें धार्मिक आधार पर लोगों को बांटने की चाल थी।

बंटवारे की राजनीति: पुरानी चाल, नई मिसाल?

यह पहली बार नहीं है जब झारखंड के विभाजन की बात उठी हो। 24 साल पहले झारखंड खुद बिहार से अलग हुआ था। लेकिन क्या झारखंड अब दो टुकड़ों में बंटेगा? क्या भाजपा इस मांग को सिर्फ आदिवासी वोटबैंक मजबूत करने के लिए उठा रही है? या फिर यह सच में एक प्रशासनिक आवश्यकता है?

अगर बांग्लादेशी घुसपैठ इतनी बड़ी समस्या है, तो इसका समाधान विभाजन है या सीमाई निगरानी को मजबूत करना? क्या इस मुद्दे को हल करने के लिए राष्ट्रपति शासन ही एकमात्र विकल्प है? इतिहास बताता है कि जब भी किसी राजनीतिक दल को राज्य की सत्ता हथियानी होती है, तो वह ‘गंभीर संकट’ का हवाला देकर बड़ा कदम उठाने की बात करता है।

क्या ‘उलगुलान’ का नया अध्याय शुरू होगा?

पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन ने 23 मार्च से बांग्लादेशी घुसपैठ के खिलाफ ‘उलगुलान’ (विद्रोह) का ऐलान कर दिया है। दिलचस्प बात यह है कि झारखंड की राजनीति में ‘उलगुलान’ शब्द की अहमियत बहुत ज्यादा है, क्योंकि यही शब्द बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए आदिवासी विद्रोह के लिए भी इस्तेमाल किया गया था। अब देखना यह होगा कि यह नया उलगुलान झारखंड को और मजबूत करेगा या इसे और कमजोर कर देगा।

राजनीति की होली: कौन रंगेगा, कौन बचेगा?

झारखंड की राजनीति में रंगों की होली चल रही है, लेकिन यह रंग कब तक टिके रहेंगे, यह देखना बाकी है। भाजपा का यह दांव क्या झामुमो को बैकफुट पर धकेल पाएगा, या फिर यह मुद्दा एक बार फिर चुनावी भाषणों तक ही सीमित रह जाएगा? झारखंड की जनता को यह तय करना होगा कि संताल परगना का मुद्दा वास्तव में उनके हक में है या सिर्फ एक नया राजनीतिक रंग है, जिसे चुनावों के समय ही चमकाया जाता है।

फिलहाल झारखंड की राजनीति में यह नया रंग कितना गाढ़ा होगा, यह आने वाला समय ही बताएगा।

 

Loading Live TV...

📍 लोकेशन और मौसम लोड हो रहा है...