औरंगाबाद: हमारा भारत देश वर्ष 1947 में British Rule के चंगुल से आजाद हुआ। आजादी के लिए हमारे देश के कई महावीरों ने अपनी प्राण की आहुति दी थी। हम सब जानते हैं कि देश की आजादी के लिए पहला बड़ा आंदोलन 1857 में हुआ था। लेकिन बिहार हम आपको बताने जा रहे हैं कुछ ऐसा कि आप भी चौंक जायेंगे।
हम आपको बताने जा रहे हैं आजादी के लिए उस आंदोलन की जिसके बारे में शायद ही कुछ लोग जानते होंगे और यह आंदोलन बिहार में 1857 या उसके बाद नहीं बल्कि उससे 87 वर्ष पहले हुआ था। यह आंदोलन पूरे 16 वर्षों तक चला था और आंदोलन के नेतृत्वकर्ता को अंग्रेजों ने पहला शत्रु की उपाधि दी थी। यह लड़ाई थी तत्कालीन छोटे रियासतों की अंग्रेजों के खिलाफ जो कि 1770 से 1786 तक चला था। इस आंदोलन के नेतृत्वकर्ता थे औरंगाबाद जिला के छोटे रियासतों में से एक रियासत के पवई रियासत नारायण सिंह।
राजा नारायण सिंह के विद्रोह के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें कई बार दबाने की कोशिश की लेकिन वे अंतिम समय तक अंग्रेजों को नाकों तले चना चबवाया था। शाहाबाद के तत्कालीन कलक्टर रेजीनल्ड हैंड ने अपने एक किताब अर्ली इंग्लिश एडमिनिस्ट्रेशन में पावरफुल जमींदार्स की कहानी में राजा नारायण सिंह को पावरफुल और ब्रिटिश हुकूमत का पहला दुश्मन करार दिया है।
इसके साथ ही फ़ारसी लेखक शैरून मौता खरीन द्वारा लिखित फ़ारसी इतिहास और सर्वे सेटलमेंट, गया में भी चर्चा है। बताया जा रहा है कि वर्ष 1764 में बक्सर के मैदान में ईस्ट इंडिया कंपनी ने दिल्ली के शाह आलम, बंगाल के नवाब मीर कासिम और अवध के नवाब शुजाउद्दौला के संयुक्त मोर्चा को हरा कर भारत को अपना गुलाम बना लिया था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को तो गुलाम बना लिया लेकिन औरंगाबाद के छोटे रियासतों ने गुलामी मानने से इंकार कर दिया था।
बताया यह भी जाता है कि बिहार में अंग्रेजों के खिलाफ राजा नारायण सिंह ने बिगुल फूंका था लेकिन इससे पहले भी उनके चाचा पलासी के युद्ध में पलामू राज के साथ मिलकर बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला का साथ दिया था। उन लोगों ने बक्सर के युद्ध में मीर कासिम और शुजाउद्दौला सहित काशी के महाराजा चेत सिंह का साथ दिया था और चेत सिंह ने अपनी हार नहीं स्वीकार की थी। 1764 में पवई बैठे थे और अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंक दिया था।
उन्होंने अंग्रेजों के शोषण नीति और मालगुजारी वसूली के ठेका पद्धति का विरोध करना शुरू कर दिया था क्योंकि वे जमींदार रैयत तथा आमजनों का शोषण करते थे। वे बचपन से ही साहसी थे और उन्होने 1764 में ही विष्णु सिंह की अनुपस्थिति में ब्रिटिश सरकार के नायब मेंहदी हुसैन को खदेड़कर अपने औरंगाबाद स्थित दुर्ग (शाहपुर कचहरी) की रक्षा की थी।
वर्तमान में इस दुर्ग में रामलखन सिंह यादव कॉलेज चल रहा है। 1765 में उन्हें सिरिस-कुटुम्बा सहित छः परगनों-अंछा, पचवन, गोह, मनोरा की बंदोबस्ती 1 लाख 75 हजार में दी गयी थी लेकिन वे जमींदारी ठेका को अंग्रेजों की शोषण नीति मानकर विरोध करते रहे। 1770 के भीषण अकाल में उन्होने रैयतों की मालगुजारी माफ कर जनता में अपना खजाना बांटते हुए अंग्रेजों को मालगुजारी देने से इंकार कर दिया।
लाचार होकर कंपनी सरकार ने तिलौथु के शाहमल को अवमिल नियुक्त कर उनके पास मालगुजारी वसूली के लिए भेजा जिसे उन्होने पीटकर खदेड़ दिया। तब ब्रिटिश सरकार के दीवान(उप गवर्नर) कर्नल बार्डर को शेरघाटी छावनी से सेना सहित उनसे कर वसूली के लिए भेजा गया, जिसने बगावत करने पर उनके पवई दुर्ग को 1778 ईस्वी में ध्वस्त कर दिया पर वें झुके नहीं और मिट्टी का गढ़ बनाकर रहने लगे।
राजा नारायण सिंह समेत कई राजा बनाए गए पटना के बेगम की हवेली में बंदी-बाद के दिनों में ब्रिटिश हुकूमत ने नई व्यवस्था के तहत पटना के राजा कल्याण सिंह को कंपनी सरकार का दीवान यानि बिहार के जमींदारों का प्रधान ‘राय’ बनाया तथा बनारस के राजा चेत सिंह के शत्रु क्याली राम को कल्याण सिंह ने नायब नियुक्त किया। मि. मैक्सवेल को कंपनी ने राजस्व प्रधान नियुक्त किया। इस व्यवस्था के अनुसार कल्याण सिंह को बिहार के जमींदारों को बकाया मालगुजारी नहीं देने पर बंदी बनाने का अधिकार था।
इस आधार पर राजा कल्याण सिंह ने पवई के राजा नारायण सिंह, नरहट सराय के राजा अकबर अली, भोजपुर के राजा विक्रमजीत सिंह, जगदीपुर के राजा भूपनारायण सिंह, तिरहुत के राजा मधु सिंह एवं अन्य राजाओं को पटना की बेगम की हवेली में मालगुजारी बकाये के कारण बंदी बना लिया गया। इस क्रम में कंपनी सरकार ने बगावत की संभावना को देखते हुए किस्त वसूली का एवं मालिकाना हक स्वीकृत कर राजा नारायण सिंह समेत सभी राजाओं को 1778 ईस्वी में रिहा कर दिया।
इसके बाद जब बनारस के राजा चेत सिंह ने कंपनी शासन के विरूद्ध बगावत कर आजादी की खुली घोषणा कर दी तो विक्षुब्ध जमींदारों ने उनका साथ दिया। इस क्रम में भूपनारायण सिंह एवं विक्रमजीत सिंह ने आरा-बक्सर होकर दानापुर छावनी से आने वाली फौज को अवरूद्ध कर दिया। मधु सिंह ने छपरा-बलिया का मार्ग बंद किया।
अकबर अली ने कर्मनाशा में नाकेबंदी की और पवई के राजा नारायण सिंह ने सासाराम के अवमिल कुली खां व टेकारी के राजा पीताम्बर सिंह के साथ मिलकर सोन के पचिमी तट पर मोर्चाबंदी की तथा कोलकात्ता से बनारस आने वाली सेना को बारून के मल्लाहों से सोन नद में डुबवा दिया।
बचे-खुचे सैनिकों को मार डाला। 5 मार्च 1781 को राजा नारायण सिंह ने पहली बार अंग्रेजों को पचवन में चखाया पराजय का स्वाद-5 मार्च 1781 को राजा नारायण सिंह ने पहली बार अंग्रेजों को पचवन क्षेत्र में पराजित किया। बिहार के राजाओं द्वारा ऐसी नाकेबंदी के कारण पूरब तरफ ब्रिटिश फौज बनारस या चुनार नहीं पहुंच सकी और वारेन हेस्टिंग्स की जान खतरे में पड़ गयी। तब इलाहाबाद, कानपुर एवं गोरखपुर से सेना पहुंचकर सहायता कर पाई।
इसके बाद राजा भूपनारायण सिंह बंदी बना लिए गए जबकि भोजपुर के राजा विक्रमजीत सिंह भयभीत होकर अंग्रेजो से मिल गये पर पवई के राजा नारायण सिंह सम्पूर्ण बिहार में अंग्रेजों से लड़ते रहे। वास्तव में राजा नारायण सिंह ने चतरा से शेरघाटी होकर राजा चेत सिंह पर चढ़ाई करने जा रही मेजर क्रोफोर्ड की सेना को औरंगाबाद क्षेत्र में रोक रखा था जबकि नारायण सिंह की 1500 सेना मैरवां आकर चेत सिंह के सेनापति बेचू सिंह से एवं उनके सैनिकों से आ मिली थी।
उन्होने कोड़िया घाटी एवं कैमूर पहाड़ियों में मेजर क्रोफोर्ड से भारी युद्ध किया था जिसमें पलामू के राजा गजराज राज ने साथ दिया जबकि उनके विरूद्ध चरकांवा के राजा छत्रपति सिंह एवं उनके पुत्र फतेह नारायण सिंह ने 900 सैनिकों सहित मेजर क्रोफोर्ड का साथ दिया, जिसके बख्शीश में उसे चरकांवा की जमींदारी रोहतास के नायब क्याली राम ने बंदोबस्त की। छत्रपति सिंह की गद्दारी के कारण राजा नारायण सिंह टेकारी की ओर नहीं जा सके बल्कि पुनपुन, सोन की घाटी, पवई, रामनगर, एवं कैमूर की पहाड़ियों में ही मेजर क्रोफोर्ड को गुरिल्ला युद्ध में उलझाए रखा।
जब क्रोफोर्ड को कार्यकारी गवर्नर चार्टर्स एवं जनरल हार्डों ने राजा नारायण सिंह को कैद कर लेने का आदेश दिया तब महादेवा के मारू सिंह ने उनका विरोध कर उन्हे पकड़वाने का षड्यंत्र किया। छ्ल से कैद किए जाने के बाद ढाका जेल भेजे गए राजा नारायण सिंह-अंततः राजा नारायण सिंह तिलौथु क्षेत्र में मेजर क्रोफोर्ड एवं जनरल हार्डों की बड़ी सेना से घिर गए।
तब वें अनुज राम सिंह की सलाह पर उप गवर्नर चार्टर से संधि वार्ता करने पटना गए जहां उन्हे छल से कैद कर लिया गया तथा 5 मार्च 1786 को उन्हे राजकीय बंदी के रूप में ढांका जेल भेज दिया गया। बाद में रिहा होने पर वे पवई दुर्ग में ही रहने लगे और कुछ दिनों पश्चात् उनकी मृत्यु हो गयी।
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औरंगाबाद से दीनानाथ मौआर की रिपोर्ट
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