झारखंड के चुनावी ‘कुर्सी-कुश्ती’: इंडिया बनाम एनडीए

रांची: झारखंड में विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण की रणभेरी बज चुकी है। कुल 38 सीटों पर वोटिंग होगी, और सियासी गलियारों में इस बार का चुनावी महासंग्राम दिलचस्प हो गया है। इंडिया गठबंधन अपने पुराने “गढ़” बचाने की कवायद में जुटा है, जबकि एनडीए का लक्ष्य है “गढ़ तोड़ो, कुर्सी जोड़ो।”

2019 के चुनावी मैदान में झामुमो ने 13 सीटें जीतकर अपने नाम का डंका बजाया था, जबकि बीजेपी ने 12 सीटों पर कमल खिलाया था। कांग्रेस ने अपनी पुरानी आदत के मुताबिक 8 सीटें हथियाईं, जो शायद किसी सटीक चुनावी गणित का नतीजा कम, और किस्मत का खेल ज्यादा था।

झामुमो का ‘फूल प्रूफ’ किला

बरहेट, लिट्टीपाड़ा, और शिकारीपाड़ा जैसी सीटों पर झामुमो का ऐसा कब्जा है कि विरोधियों के लिए ये सीटें किसी अलादीन के चिराग की तरह हो गई हैं—देख सकते हो, लेकिन छू नहीं सकते। राज्य गठन के बाद से इन सीटों पर झामुमो का लगातार विजय रथ ऐसा दौड़ा है, मानो ‘गांव का सरपंच’ चुनने के लिए पूरा परिवार वोट डालने गया हो।

कांग्रेस का चुनावी लूडो

कांग्रेस की स्थिति वैसे ही है, जैसे लूडो के खेल में ‘घर’ पहुंचने से पहले बार-बार सांप काट ले। जिन आठ सीटों पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी, उनमें से कई पर वह पहले हार का स्वाद चख चुकी है। जरमुंडी और जामताड़ा जैसे इलाके कांग्रेस के लिए ‘करिश्माई चाल’ वाले घोड़े की तरह हैं—कभी जीत की दस्तक, तो कभी मात का आघात।

रामगढ़ और झरिया की बात करें, तो यहां कांग्रेस ने पहली बार जीत दर्ज की। लेकिन झारखंड के चुनावी मौसम में “पहली बार जीत” अक्सर “आखिरी बार जीत” बन जाती है।

एनडीए: सुधार की राह या फिर सुधार गृह?

एनडीए, खासकर बीजेपी, के लिए ये चुनाव “सुधार परीक्षा” की तरह हैं। 2019 में जो 12 सीटें जीतीं, उन्हें बचाने का टारगेट है। लेकिन एनडीए के लिए बड़ी चुनौती यह है कि वह झामुमो के गढ़ में सेंध लगाए। हालांकि, बीजेपी को यह समझना होगा कि “डबल इंजन की सरकार” के नाम पर वोट मांगना ठीक है, पर हर बार इंजन का फ्यूल महंगाई और बेरोजगारी से भरा होगा, तो जनता अगले स्टेशन पर टिकट कैंसल कर देगी।

अंत में: जनता के मन की बात

जनता फिलहाल इस चुनावी दंगल को दूर से देखकर मखाने चबा रही है। झारखंड में चुनावी मौसम का मतलब सिर्फ वोटिंग नहीं, बल्कि जुमलों और वादों की बारिश भी है। इंडिया गठबंधन और एनडीए, दोनों ने अपने तरकश में तीर तैयार कर लिए हैं। जनता को बस इतना देखना है कि कौन सा तीर ‘दिल’ पर लगता है और कौन सा ‘डिब्बे’ में।

तो, देखते हैं इस बार का सियासी कुश्ती दंगल कौन जीतता है। जनता से यही गुजारिश है—चुनाव को मनोरंजन की तरह देखें, लेकिन वोट ‘समझदारी’ से दें। आखिर, अगले पांच साल तक इन्हीं के भरोसे झारखंड की गाड़ी चलेगी!

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