रांची: झारखंड में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है, और पहले चरण के मतदान में अब केवल छह दिन शेष हैं। सभी राजनीतिक दल अपने-अपने स्तर पर प्रचार में जुट गए हैं, लेकिन इंडिया गठबंधन में नेतृत्व और रणनीति को लेकर चर्चाएं जोरों पर हैं। खासकर, कांग्रेस की निष्क्रियता और बड़े नेताओं की गैरमौजूदगी सवाल खड़े कर रही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह, और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जैसे भाजपा के दिग्गज नेताओं ने ताबड़तोड़ रैलियां कर दी हैं। दूसरी ओर, झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के हेमंत सोरेन और कल्पना सोरेन ने भी पूरी ताकत झोंक दी है। लेकिन कांग्रेस और राजद के शीर्ष नेता मैदान में नहीं दिखाई दे रहे, जिससे गठबंधन की चुनावी तैयारी पर सवाल उठ रहे हैं।
2019 के चुनाव में कांग्रेस ने 31 सीटों पर लड़कर 16 सीटें जीती थीं, जबकि झामुमो ने 43 में से 30 सीटों पर कब्जा किया। इस बार कांग्रेस 29 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। मगर पार्टी के स्थानीय और राष्ट्रीय नेताओं की उदासीनता ने इसकी संभावनाओं पर पानी फेरने का काम किया है।
राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, और तेजस्वी यादव जैसे प्रमुख नेता अब तक झारखंड में सक्रिय प्रचार से दूर हैं। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने मात्र एक रैली की है। इन हालातों में भाजपा से नाराज मतदाताओं को आकर्षित करने की कांग्रेस की क्षमता संदेह के घेरे में है।
हरियाणा चुनाव का उदाहरण कांग्रेस के लिए चेतावनी है। वहां भी पार्टी ने अंत तक माहौल बनाने में ढिलाई बरती। नतीजतन, भाजपा ने एक कमजोर स्थिति से भी सरकार बना ली। झारखंड में भी स्थिति वैसी ही बन रही है। भाजपा हर सीट पर माइक्रो-मैनेजमेंट कर रही है, जबकि कांग्रेस अपने पारंपरिक वोट बैंक को संभालने में भी नाकाम दिख रही है।
राजनीतिक विश्लेषकों और विपक्षी नेताओं ने कांग्रेस को बैलगाड़ी की तरह धीमा करार दिया है। वहीं, हेमंत सोरेन को राजा जी की उपाधि देते हुए कहा जा रहा है कि अगर गठबंधन के साथी कमजोर पड़ेंगे, तो उनकी सत्ता का सफर मुश्किल हो सकता है।
अगर कांग्रेस जल्द अपनी रणनीति में बदलाव नहीं करती, तो झारखंड में गठबंधन सरकार बनाने की राह कठिन हो जाएगी। हेमंत सोरेन और झामुमो का प्रदर्शन मजबूत हो सकता है, लेकिन कांग्रेस के कमजोर प्रदर्शन का असर पूरे गठबंधन पर पड़ेगा।
इस चुनाव में कांग्रेस की भागीदारी सिर्फ सीटों के आंकड़ों तक सीमित नहीं है। इसकी भूमिका निर्णायक है। झारखंड की जनता इस बात का इंतजार कर रही है कि क्या कांग्रेस अपनी निष्क्रियता से बाहर आएगी या फिर यह चुनाव भाजपा की बढ़त को सुनिश्चित करेगा।
चुनावी रेस में बैलगाड़ी से सफर करने वाली कांग्रेस को अपनी गाड़ी की रफ्तार तेज करनी होगी। बड़े नेताओं की रैलियां, कार्यकर्ताओं में जोश का संचार, और जमीनी स्तर पर मजबूत प्रचार ही जीत की कुंजी है। अन्यथा, चुनावी बैलगाड़ी भारी पड़ सकती है, और इसका खामियाजा झामुमो और पूरे गठबंधन को उठाना पड़ेगा।
झारखंड के इस चुनावी रण में भाजपा और झामुमो के बीच कांटे की टक्कर है। लेकिन सवाल यह है कि क्या कांग्रेस समय रहते अपनी रणनीति में बदलाव करेगी, या फिर यह चुनाव गठबंधन के लिए एक और सबक बनकर रह जाएगा?