राजा-रानी और विरोधी: चुनावी महासंग्राम की व्यंग्यमयी गाथा

राजा-रानी और विरोधी: चुनावी महासंग्राम की व्यंग्यमयी गाथा

रांची: चुनाव की रणभूमि सज चुकी है, और राजा जी पूरे जोश में हैं। बोले, “हम आ रहे हैं, कोई मैदान में हो तो आए! जो बड़ा-बड़ा बोलता था, अब दिख नहीं रहा। हमारी रानी भी मैदान में उतर आई है, दूर-दूर तक विरोधी का नामोनिशान नहीं। सब डरकर छुप गए लगते हैं।”

अब राजा जी की बातों में वो पुराना शाही ठाठ तो दिख ही रहा है, पर इतिहास गवाह है कि हर राजा को कभी न कभी चुनौती मिलती है। राजा जी को शायद याद नहीं कि झारखंड की मिट्टी ने कई महारथी देखे हैं, जिन्होंने बड़े-बड़े सपने देखे और फिर इतिहास के पन्नों में खो गए। राजा जी बोले जा रहे हैं, “गिनती के दिन बचे हैं, और हमारी जीत तय है!” मानो चुनावी जंग नहीं, किसी शतरंज की चाल हो जहां सबकुछ पहले से तय हो।

लेकिन राजा जी, इतिहास  आपको कुछ सिखाना चाहता है। याद है अतीत का वो राजा, जो अपने किले में बंद, अजेय समझा जाता था? पर जैसे ही असली युद्ध का समय आया, जनता की ताकत ने उसका राजपाट पलट दिया। यही हाल आपके सामने भी हो सकता है। जितना आप अपने घोड़े और प्यादों पर भरोसा कर रहे हैं, उतना ही ध्यान विरोधी भी लगा रहा है। विरोधी शायद नारे न दे रहा हो, पर इतिहास ने सिखाया है कि जो शांत रहता है, वही असली चोट करता है।

रानी जी तो पूरे ठाठ-बाट से उतरी हैं, मानो चुनाव नहीं, शाही दरबार हो। उनकी रणनीति भी धीरे-धीरे सबको दिखने लगी है। वो राजा जी की तरह मंच से बड़ी-बड़ी बातें नहीं कर रहीं, बल्कि धीरे-धीरे जमीनी चालें बिछा रही हैं। लेकिन राजा जी को लगता है कि वो अब भी राजतंत्र में हैं, जहां जीत निश्चित होती है। पर चुनाव तो लोकतंत्र का खेल है, और जनता की चाल सबसे बड़ी।

विरोधी भी चुपचाप नहीं है। वो शायद दूर बैठकर हंस रहा होगा कि राजा जी और रानी जी आपस में इतने मग्न हैं कि उन्हें मैदान में असली चुनौती दिख ही नहीं रही। विरोधी का खेल बस इंतजार का है। सही वक्त पर वो अपनी चाल चलेगा, जैसे महाभारत में अर्जुन ने अंत में अपने तीर चलाए थे। और तब राजा जी को महसूस होगा कि चुनावी जंग किसी दरबारी मजलिस का खेल नहीं है, बल्कि एक असली संघर्ष है, जिसमें जनता की आवाज़ सबसे ऊंची होती है।

तो, राजा जी, इतिहास से कुछ सीखिए। जिनको अपने आप पर सबसे ज्यादा भरोसा होता है, वही मुंह की खाते हैं। सत्ता के सिंहासन से गिरने में वक्त नहीं लगता। चुनावी रणभूमि बच्चों का खेल नहीं, ये जनता का मैदान है। और यहां जो शतरंज के प्यादों को भी हल्के में लेता है, वही अंत में बाजी हारता है।

 

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