रांची: झारखंड की राजनीति इन दिनों एक अनोखे महोत्सव का रूप ले चुकी है, जहां आरोपों की रंग-बिरंगी झालरें लहराती हैं और हर नेता अपने-अपने झंडे के साथ मंच पर उतारू है। इस उत्सव में एक अद्भुत नज़ारा है—कभी-कभी तो लगता है कि नेता अपने कार्यकर्ताओं के लिए नहीं, बल्कि एक दूसरे के खिलाफ पेंटिंग कर रहे हैं।
हाल ही में असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने झारखंड के स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता पर पेपर लीक का ठीकरा फोड़ा। क्या आप सोच सकते हैं, शिक्षा के मंदिर में यह कैसा भव्य आयोजन है? एक-दूसरे पर आरोप लगाते हुए, मानो कोई महाभारत की कहानी सुनाई जा रही हो। लगता है, परीक्षाएं तो एक बहाना हैं, असल में तो यह एक ‘किस्सा-कोताह’ है, जहां हर कोई अपनी भूमिका निभाने में लगा है।
बिहार के डॉ. अशोक चौधरी ने डबल इंजन सरकार का राग अलापते हुए कहा कि झारखंड भी विकास के रास्ते पर चलेगा। विकास की गाड़ी की रफ्तार इतनी तेज है कि शायद इससे पहले कोई नेता खुद को ही पीछे छोड़ दे! यह सुनकर ऐसा लगता है जैसे वे किसी फिल्म का प्रमोशन कर रहे हों, जिसमें जनता को बार-बार दिखाया जाता है कि “अगली बार कुछ नया होगा।”
केशव प्रसाद मौर्य, जिन्होंने झामुमो को भ्रष्ट करार दिया, अपने शब्दों से जैसे तीर चला रहे थे। “झामुमो की विदाई तय है!” वह एक ऐसा बयान है, जैसे चुनावी मैदान में रिंग में घुसते ही एक घूंसा मार दिया हो। पर सवाल यह है कि क्या यह घूंसा आम जनता के हित में है, या फिर केवल राजनीतिक पंचों का खेल है?
तेजस्वी यादव का बयान सुनकर तो ऐसा लगता है कि वह किसी जादूगर की तरह मंत्र फेंक रहे हैं—“हम दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के लिए लड़ेंगे!” वाह, कितनी बढ़िया जादूगरी है! लेकिन जब सच्चाई सामने आएगी, तब ये जादुई शब्द कहीं खो जाएंगे, जैसे एक तारे की चमक सुबह होते ही मिट जाती है।
फगन सिंह कुलस्ते और सतीशचंद्र दुबे जैसे नेता भी पीछे नहीं रहे। कुलस्ते ने आदिवासियों की हताशा का जिक्र किया, जैसे उन्होंने एक नाटक का मंच तैयार कर दिया हो। दुबे ने हेमंत सरकार को “गूंगी-बहरी” करार दिया—क्या यह भी एक नया नाटक है जिसमें किसी को आवाज़ ही नहीं सुनाई दे रही?
इस प्रकार, झारखंड की राजनीति में इस महोत्सव के दौरान हर नेता एक-दूसरे पर आरोपों के फूलों की बारिश कर रहा है, जबकि विकास के असली मुद्दे कहीं खो गए हैं। क्या सच में कोई ऐसा नेता आएगा जो इस महोत्सव का अंत कर सके और जनता की असली जरूरतों पर ध्यान दे सके? फिलहाल, झारखंड की राजनीति एक रंगीन उत्सव बनी हुई है, जहां सभी सर्कस के जोकर की तरह नजर आते हैं, और विकास का सपना एक हसीन ख्वाब बनकर रह गया है।