रांची: झारखंड विधानसभा चुनाव इस बार न केवल समीकरणों से, बल्कि भाजपा के मुख्यमंत्री के चेहरे के सवालों से भी आकर्षित हो रहा है। भाजपा की अंदरूनी राजनीति में जहां एक ओर बाबूलाल मरांडी जैसे पुराने और अनुभवी नेता की काबिलियत पर सवाल उठाए जा रहे हैं, वहीं पार्टी एक नए चेहरे की तलाश में है, जो जनता को झांसा दे सके। चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा ने कभी बाबूलाल को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया, शायद उन्हें डर था कि उनका नाम सुनते ही आदिवासी वोटर भाग जाएंगे।
सवाल यह है कि क्या भाजपा, जो हमेशा से ‘‘छोटे चेहरों’’ को आगे लाने के लिए कुख्यात रही है, इस बार भी किसी ऐसे गुमनाम चेहरे को मुख्यमंत्री के रूप में पेश करेगी, जिस पर ना तो जनता को विश्वास हो, और ना ही पार्टी के भीतर कोई साख हो? यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि पार्टी के नेताओं ने रघुवर दास और अर्जुन मुंडा जैसे सशक्त चेहरों को चुनावी रणक्षेत्र से बाहर रखा है। क्या यह संकेत है कि भाजपा ने इन चेहरों को झारखंड की राजनीति में पूरी तरह से अप्रासंगिक मान लिया है?
अब तो यह सवाल उठने लगा है कि भाजपा झारखंड में अपनी हार की जिम्मेदारी किसी और के सिर क्यों डालना चाहती है। क्या यह अपने नेताओं को ‘‘कंपनी’’ के तौर पर प्रोजेक्ट करने का नया तरीका है, ताकि भविष्य में किसी को दोषी ठहराया जा सके?
अब बात करें बाबूलाल मरांडी की, तो वे भाजपा के ‘‘बड़े भाई’’ के रूप में कभी नहीं दिखे। उनकी खामोशी और पार्टी की अनदेखी को देखते हुए लगता है कि भाजपा ने उन्हें सिर्फ अपनी रणनीति का हिस्सा बनाया था, ताकि वह किसी तरह से आदिवासी वोटर को रिझा सकें। लेकिन, चुनावी नतीजे के बाद भाजपा को यह समझ में आ चुका है कि आदिवासियों की तसल्ली पाने के लिए कुछ और चेहरा चाहिए। और हां, यदि भाजपा एक ‘‘नया चेहरा’’ लाती है, तो उम्मीद कीजिए कि वह किसी ‘‘अजनबी’’ को ही मुख्यमंत्री बनाकर सबको चौंका सकती है।
तो क्या भाजपा किसी और नेता को, जो अभी तक छुपा हुआ था, मुख्यमंत्री बनाने का तर्क गढ़ेगी? या फिर वह एक और ‘‘आंदोलन’’ के जरिए अपने समर्थकों को समझाएगी कि यह सब उनके हित में है? झारखंड की राजनीति में जैसे ही ‘‘नए चेहरों’’ की चर्चा होती है, वैसे ही यह सवाल उठता है कि क्या यह भाजपा का पारंपरिक ‘‘ट्रायल एंड एरर’’ तरीका है, जिसमें जनता को हमेशा चकरघिन्नी बना दिया जाता है।
यह तो वक्त ही बताएगा कि अगर सरकार बनती है, तो मुख्यमंत्री का चेहरा आखिरकार कौन होगा, पर फिलहाल तो भाजपा अपनी ‘‘चेहरे की राजनीति’’ के जरिए सियासी बाजार में चलने वाले भावों से खूब खेल रही है।