रांची: इस वर्ष के लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद, हमारे राजनीतिक सर्कस के कलाकारों का असली खेल शुरू हुआ है। जो विधायक ‘दिल्ली’ जाने का सपना देख रहे थे, उनका सपना अब सर्कस के जोकरों की तरह चूर-चूर हो गया है। अब ये सभी विधायक अपनी विधायकी बचाने के लिए चुनावी मैदान में फिर से कूद पड़े हैं। जैसे सर्कस में हर कलाकार अपने अद्भुत करतब दिखाता है, वैसे ही ये नेता अपनी चुनावी चालें चलने को तैयार हैं।
लोकसभा चुनाव में आठ विधायकों ने अपनी किस्मत आजमाई, लेकिन सभी को हार का सामना करना पड़ा। अब वही हार के नाटककार अपनी विधायकी के लिए एक बार फिर से चुनावी रिंग में उतर रहे हैं। उनके चेहरे पर वही पुराना आत्मविश्वास है, मानो कोई सर्कस का शेर फिर से अपनी दहाड़ देने को तैयार हो। अपनी-अपनी पार्टी के टिकट पाने की होड़ में ये नेता एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश कर रहे हैं, जैसे सर्कस में जोकर एक-दूसरे से मुकाबला करते हैं।
सीता सोरेन की बात करें, तो वो अपनी पुरानी जामा सीट छोड़कर अब जामताड़ा से चुनाव लड़ने जा रही हैं। क्या यह उनकी नई रणनीति है, या बस एक और सर्कस का तमाशा? अन्य सभी विधायक अपनी पुरानी सीटों पर फिर से वापसी करने की कोशिश कर रहे हैं, मानो सर्कस के कलाकार अपनी पुरानी परफॉर्मेंस दोबारा दिखाने के लिए उतावले हों।
लोकसभा चुनाव में चार विधायकों ने अपनी ताकत साबित की, लेकिन अब उनकी अगली चुनौती अपने परिवार के सदस्यों को भी चुनावी खेल में शामिल करना है। नलिन सोरेन के बेटे आलोक, ढुलू महतो के भाई शत्रुघ्न, और जोबा मांझी के बेटे जगत सभी ने अपने-अपने टिकट पा लिए हैं। क्या ये युवा कलाकार अपने माता-पिता की तरह सर्कस के रंगीन परफॉर्मेंस में चमक पाएंगे, या ये भी केवल सर्कस के एक और चकाचौंध में खो जाएंगे?
इस चुनावी सर्कस में दर्शक तो हैं, लेकिन क्या मुख्य कलाकार अपनी भूमिका को सही से निभा पाएंगे? बड़े दलों ने अपने पुराने घोड़े फिर से तैयार कर लिए हैं, और जो टिकट न मिलने पर नाराज होकर भाग गए, वो दूसरे दलों में शरण लेने को तैयार हैं। यह तो वही कहानी है – ‘चूहा पकड़ो, बिल्ली को पकड़ने दो’।
अंत में, झारखंड की राजनीति एक सर्कस की तरह है, जिसमें हर बार नया मोड़ और नया पात्र जुड़ता है। इस चुनावी नाटक में कौन हंसता है और कौन रोता है, यह देखना दिलचस्प होगा। राजनीति का ये सर्कस न केवल चुनावी तमाशा है, बल्कि एक बड़ा सवाल भी है: क्या ये कलाकार अपनी कला में सफल होंगे, या बस सर्कस के जोकर बनकर रह जाएंगे? यही है राजनीति का सर्कस!