रांची: झारखंड की राजनीति इन दिनों नये मोड़ पर है। राज्य की सत्ता में साझेदार दो प्रमुख दल—झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) और कांग्रेस—अब सहयोगी कम और प्रतिद्वंद्वी अधिक नज़र आ रहे हैं।
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इसका ताज़ा उदाहरण है कांग्रेस द्वारा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और उनकी पत्नी कल्पना सोरेन को लेकर की जा रही सक्रिय राजनीतिक घेराबंदी। यह टकराव सिर्फ प्रशासनिक मतभेदों का परिणाम नहीं, बल्कि इसके पीछे आदिवासी वोट बैंक को लेकर एक गहरी सियासी रणनीति छुपी हुई है।
बीते कुछ हफ्तों में यह साफ तौर पर देखा गया कि कांग्रेस ने अलग-अलग मुद्दों पर न केवल अपनी असहमति दर्ज कराई, बल्कि सीएम को सीधे पत्र लिखकर उसे सार्वजनिक भी किया।
चाहे वह पेसा कानून से जुड़ा मामला हो, जिसमें कांग्रेस की विधायक दीपिका पांडे सिंह राज्य स्तर पर कार्यशालाएं आयोजित कर रही हैं, या फिर कांग्रेस नेताओं द्वारा यह दावा करना कि पेसा लागू करने का श्रेय दरअसल यूपीए और कांग्रेस को मिलना चाहिए—ये सभी घटनाएं गठबंधन के भीतर बढ़ती असहजता की ओर संकेत कर रही हैं।
झामुमो महासचिव विनोद पांडे तक को यह कहना पड़ा कि किसी को भी पेसा का राजनीतिक लाभ नहीं लेना चाहिए, जिससे स्पष्ट होता है कि कांग्रेस की गतिविधियां झामुमो को नागवार गुज़र रही हैं।
इस दरार को और गहरा करता है कांग्रेस द्वारा ‘हूल दिवस’ के मौके पर सीएम के गृह क्षेत्र बरहेट में पद यात्रा निकालने की योजना। यह वही क्षेत्र है जहां सीएम हेमंत सोरेन और कल्पना सोरेन की सीधी पकड़ है।
राजनीतिक गठबंधन या टकराव :
ऐसे में कांग्रेस का वहां राजनीतिक कार्यक्रम आयोजित करना सिर्फ एक संयोग नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। कांग्रेस नेतृत्व यह संदेश देना चाहता है कि वह भी आदिवासी पहचान की राजनीति में दावेदार है।
भाषा विवाद पर भी गठबंधन में मतभेद खुलकर सामने आए। शिक्षक पात्रता परीक्षा में पलामू, गढ़वा और खूंटी जिलों में स्थानीय भाषाओं के चयन को लेकर विवाद छिड़ा।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और वित्त मंत्री राधाकृष्ण किशोर ने मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिखकर न सिर्फ भोजपुरी और हिंदी को शामिल करने की मांग की, बल्कि यह पत्र सार्वजनिक कर दलित और पिछड़े वर्ग की भावनाओं को भी हवा दी। यह दिखाता है कि कांग्रेस अब परंपरागत सहयोगी नहीं, बल्कि राजनीतिक स्पेस हासिल करने को आतुर विरोधी भूमिका में आ चुकी है।
सिरम टोली फ्लाईओवर विवाद ने तो झामुमो-कांग्रेस के संबंधों को और खुलकर उजागर कर दिया। आदिवासी स्थल के पास बने रैंप को लेकर जब सामाजिक संगठनों ने विरोध जताया, तो कांग्रेस के विधायक और पूर्व मंत्री रामेश्वर उरांव ने अपनी ही सरकार को निशाने पर लिया। उन्होंने कहा कि आदिवासी भावनाओं की अनदेखी की गई है।
उनके इस बयान को झामुमो के अंदर यह संकेत समझा गया कि कांग्रेस आदिवासी मुद्दों पर खुद को प्रमुख आवाज़ के रूप में स्थापित करना चाहती है।
इन सभी घटनाक्रमों से यह संकेत साफ है कि झारखंड में मौजूदा गठबंधन महज़ सत्ता की साझेदारी तक सीमित नहीं रहा। अब यह एक ‘सत्ता के भीतर सत्ता’ की लड़ाई में बदल चुका है, जिसमें दोनों दल विशेष रूप से कांग्रेस, खुद को आदिवासी राजनीति का नया केंद्र बिंदु बनाने की कोशिश कर रही है। झामुमो के कोर वोट बैंक पर यह सीधी चुनौती है, जिसे पार्टी नेतृत्व हल्के में नहीं ले सकता।
फिलहाल स्थिति यह है कि झामुमो-कांग्रेस गठबंधन की अंदरूनी दूरी सार्वजनिक मंचों पर दिखाई देने लगी है। न समन्वय बैठकों की बात हो रही है, न ही मतभेदों को सुलझाने की कोशिशें।