रांची: राजनीति में कभी-कभी ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं, जो महलों के दरवाजों से बाहर नहीं, बल्कि दरबार के भीतर से निकलते हैं। और अगर आप झारखंड की राजनीति में नजर डालें, तो आपको राजघराने की एक अनोखी कहानी दिखेगी, जिसमें राजा जी और रानी जी की चर्चा है। यह कहानी एक महल की तरह है, जहां सत्ताओं का बंटवारा बड़े ही राजसी तरीके से किया जाता है, और कौन कहे, कभी-कभी राजमहल में चाय की चुस्कियों के साथ कुछ बदलावों की भी योजना बनती है!
हमारे राजी जो अभी राजगद्दी पर आसीन हैं, किसी भी तरह के साधारण आदमी से कम नहीं हैं। कोई राजा हो, जो दिन-रात राज्य की समस्याओं का समाधान करता हो और कभी-कभी तो उन्हें यह भी याद नहीं रहता कि उन्होंने पिछले हफ्ते कौन सा भाषण दिया था। लेकिन कोई बात नहीं! हमारे राजा हमेशा अपने महल के भीतर सशक्त दिखते हैं, भले ही कभी वह जेल की सलाखों के पीछे छिपे हों। यह तो एक शाही औपचारिकता है, क्योंकि राजमहल में कोई भी स्थिति स्थायी नहीं होती!
अब रानी की बात करते हैं राजा के साथ-साथ रानी का भी शासन है।राजा की अनुपस्थिति में रानी ने पार्टी का उत्तरदायित्व बखूबी निभाया। राजनीति में तो रानी अपनी जगह बना चुकी थीं, भले ही उन्होंने खुद को कभी “शाही” नहीं माना। लेकिन सच तो यह है कि रानी ने राजमहल में साजिशों और संघर्षों के बीच अपना एक स्थायी स्थान बना लिया है। और अब यह अफवाहें हैं कि महल के अंदर कोई बड़ा बदलाव होने वाला है। क्या रानी को अब सत्ता का वज़न पूरी तरह से सौंपा जाएगा? क्या रानी का नया पद तय हो रहा है? खैर, यह तो महल के अगले आयोजन में ही साफ होगा।
महल के अंदर अगले महीने एक बहुत ही राजसी महाधिवेशन होने जा रहा है, जिसमें पार्टी के अगले कदमों पर चर्चा होगी। अब यहां एक दिलचस्प बात सामने आ रही है – क्या रानी को महल की केंद्रीय उपाध्यक्ष बना दिया जाएगा? या फिर उनकी शाही जि़म्मेदारी महिला विंग की अध्यक्षता तक सिमित रहेगी? और क्या महल के अंदर इस “पारिवारिक पार्टी” का तंत्र और मजबूत होगा? शाही निर्णयों की गूंज पार्टी के गलियारों में इस समय गूंज रही है, और हर कोई यह अनुमान लगा रहा है कि राजा और रानी के बीच सत्ता का बंटवारा कैसे होगा।
अब, इस महल के भीतर हो रही राजनीति पर भाजपा का क्या कहना है? तो, हमारी शाही सभा के विरोधी, भाजपा, बड़े सलीके से व्यंग्य कर रही है – “क्या अचरज होगा अगर रानी को कोई बड़ा पद मिल जाए?” वाह! क्या बात है! आखिरकार, परिवार का तो तंत्र होना ही चाहिए। पहले अभी ऐसा होता रहा है तो अब अगर राजा की रानी को उपाध्यक्ष बना दिया जाए, तो इसमें कौन सी नई बात होगी? यही तो राजघरानों का दस्तूर है – सत्ता को परिवार में ही सहेज कर रखना!
लेकिन राजघराने की राजनीति में तो और भी बातें हैं। महल के भीतर अब केवल झारखंड की सीमाएं नहीं, बल्कि बाहरी राज्यों तक भी पहुंच बनाने की योजना चल रही है। बिहार में चुनाव आने वाले हैं, और यहां तक कि महल के दरबार में इस बारे में भी चर्चा हो रही है कि बिहार में कितनी सीटों पर चुनाव लड़ा जाएगा। इस महल का ध्येय अब सिर्फ झारखंड में ही नहीं, बल्कि बिहार और अन्य राज्यों में भी अपनी जगह बनाना है। और क्या हम कह सकते हैं कि पार्टी अब अपना साम्राज्य बढ़ाने का सपना देख रही है? राजमहल में यही चर्चा हो रही है, और अगर यह योजना सफल होती है, तो यह “राजघराने” के विस्तार की शुरुआत हो सकती है!
इस कहानी में अंत में यही कह सकते हैं कि राजनीति महल के अंदर हमेशा कुछ बदलावों के साथ चलती रहती है। राजा का पद कभी स्थिर नहीं रहता, और रानी की भूमिका कभी भी बढ़ सकती है। पारिवारिक राजनीति की इस कहानी में हमें परिवारवाद के आरोपों से लेकर नए नेतृत्व की संभावनाओं तक सब कुछ मिलता है। तो, राजमहल में क्या होगा, यह तो महाधिवेशन के बाद ही पता चलेगा। लेकिन अब सवाल यह है कि क्या हमें सच्चे राजनीति के बजाय महलों की राजनीति में व्यस्त रहना चाहिए? क्या यह सिर्फ एक और “राजघराने” की कहानी नहीं है?