सामाजिक कार्यकर्त्ता संजीव कुमार श्रीवास्तव की कलम से
बिहार पुलिस पर उठते सवाल, अंकेक्षण सुझाएगा रास्ता
पटना: हाल के दिनों में बिहार में जिस तेजी के साथ आपराधिक घटनाएं बढ़ी हैं उसने कई प्रश्न खड़े किये हैं। कानून का राज और उसको बहाल करवाने वाली पुलिस की प्रासंगिकता पर सवाल उठने लगे हैं। अब सवाल है कि कल्याणकारी राज्य में पुलिस यदि एक सेवा है तो क्या बिहार की जनता इस सेवा से संतुष्ट है? कानून व्यवस्था एक दिन में खराब नहीं होती है, इसके खराब होने और सुधा दोनो के पीछे एक सतत प्रशासनिक प्रयास होता है जिसका नेतृत्व स्वयं गृह मंत्री करते है।
पुलिस एक सेवा है और इसका नागरिक मूल्यांकन एवं फीडबैक सामाजिक अंकेक्षण द्वारा हो सकता है। एक ऐसा अंकेक्षण जो सरकार और सरकारी पैसे पर न हो, बल्कि पूर्णतः नागरिक प्रयास हो। ये अंकेक्षण गृह मंत्री को Enable कर सकता है पुलिस को मानवीय, जिम्मेदार और लोकतांत्रिक करने में। आम जनता की संतुष्टि के पैमाने इन प्रश्नों के आधार पर भी आंके जा सकते हैं क्या पुलिस और पुलिस के अलग- अलग महकमों का सामाजिक अंकेक्षण होना चाहिए? क्या सामाजिक अंकेक्षण बिहार पुलिस को मानवीय और लोकतांत्रिक बनाने में मददगार हो सकता का है?
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क्या बिहार पुलिस पूरी तरह से सुसज्जित और प्रशिक्षित है? राज्य के विभिन्न थानों में पुलिस 90 दिन में कितने दर्ज मामलों को निष्पादित करती है? थाने में प्राथमिकी लिखवाना कितना आसान है? बिहार पुलिस की अपराध प्रयोगशाला कितने वैज्ञानिक तरीके से अनुसंधान और जांच करती है? पुलिस पर शराबबंदी कानून का कितना नकारात्मक प्रभाव पड़ा है? जब्ती की सूचि, तलाशी वारंट आदि क़ानूनी प्रक्रियाओं का कितना अनुपालन पुलिस करती है? क्या पुलिस आज भी औपनिवेशिक काल में जी रही है?
जाहिर है इन सवालों के जवाब हासिल करने और सत्यशोधक आकलन के लिए सामाजिक अंकेक्षण एक निर्णायक माध्यम हो सकता है। अंकेक्षण से निकले तथ्य पुलिस को राज्य की जनता के प्रति और अधिक जवाबदेह बना सकते हैं। बिहार में पुलिस व्यवस्था के प्रति गहरे असंतोष के बीच रोज कहीं न कहीं से पुलिस दुर्व्यवहार, अवैध गिरफ्तारी, हिरासत में मौत, अत्यधिक बल प्रयोग और अधिकारों के दुरुपयोग की खबरें सामने आ रही हैं। सोशल मीडिया और न्यूज़ चैनलों पर ऐसी घटनाओं के वीडियो आये दिन वायरल हो रहे हैं। इससे राज्य की कानून व्यवस्था पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लग गया है।
हालाँकि विषय के जानकारों का मानना है कि यह महज पुलिस की कार्यप्रणाली का मामला नहीं है, बल्कि पूरी की पूरी व्यवस्था की खामियों का परिणाम है। पुलिसकर्मियों पर काम का अत्यधिक बोझ है। एक लाख की जनसंख्या पर महज 170 पुलिसकर्मी हैं, जो संयुक्त राष्ट्र के मानक 220 प्रति लाख से काफी कम है। इसके साथ ही पुलिस बजट का एक बड़ा हिस्सा वेतन और प्रशासनिक खर्चों में व्यय हो जाता है, इससे उपकरण, प्रशिक्षण और तकनीकी विकास पर समुचित निवेश नहीं हो पाता है। अपराध की बदलती प्रकृति के बीच पुलिसिंग में आधुनिकता और संवेदनशीलता की भारी कमी है।
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प्रकाश सिंह बनाम भारत सरकार (2006) में सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस सुधारों के लिए सात बिंदु सुझाए थे, लेकिन बिहार समेत अधिकतर राज्यों ने अब तक उन्हें पूरी तरह से लागू नहीं किया है। राजनीतिक हस्तक्षेप, पदस्थापन में मनमानी और प्रक्षिक्षण में कमी जैसे कारणों से स्थिति और भी जटिल हो गयी है। समसामयिक घटनाएं जैसे छात्रों पर लाठीचार्ज, बारसोई गोलीकांड और अलग- अलग दलों के नेताओं पर बलप्रयोग ने पुलिस की कार्यशैली और प्रशासनिक नियंत्रण पर सवाल खड़े कर दिये हैं।
पुलिस अधिकारियों के अनुसार अत्यधिक काम, सातों दिन की ड्यूटी, संसाधनों की कमी और इनकी वजह से बने मानसिक दबाव की वजह से वे अपने कर्तव्यों को सुचारू रूप से नहीं निभा पा रहे हैं। हालाँकि जानकार मानते हैं कि कार्य का अत्यधिक दबाव और संसाधनों की कमी किसी भी स्थिति में अत्याचार, असंवैधानिक कारवाई और नागरिकों के साथ दुर्व्यवहार को जायज बताना बेतुका है। कई मामलों में देखा गया है कि जिनसे कानून के पालन की अपेक्षा की जाती है वही उसे तोड़ते पाए गए हैं।
बिहार पुलिस की भर्ती प्रक्रिया, प्रशिक्षण की गुणवत्ता, क़ानूनी जानकार और मानवाधिकार के प्रति संवेदनशीलता पर गंभीरता से पुनर्विचार करने का समय आ गया है। जब तक पुलिस को राजनीतिक प्रभाव से मुक्त, पारदर्शी और उत्तरदायी नहीं बनाया जाएगा तब तक न तो समाज में कानून का भय रह पायेगा और न ही पुलिस के प्रति विश्वास। बिहार ही नहीं, समस्त भारत में पुलिस व्यवस्था पर जनता का विश्वास तब ही स्थापित हो सकता है जब पुलिस जवाबदेह, पारदर्शी और संवेदनशील हो। प्रशिक्षण संस्थानों की बदहाल स्थिति पर महालेखाकार (CAG) जैसी संवैधानिक संस्थाओं की चिंता को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। यह महज संवैधानिक ढ़ांचे की ही नहीं बल्कि मानसिकता और शासन संस्कृति की भी निष्फलता है।
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आज पुलिस पर दमन, पक्षपात और अमानवीय व्यवहार जैसे आरोप लगातार बढ़ रहे हैं। इन परिस्थितियों में केवल आतंरिक सुधार ही नहीं बल्कि बाह्य सामाजिक निगरानी और जन- सहभागिता की भी अत्यंत आवश्यकता है। सामाजिक अंकेक्षण, नागरिक रिपोर्ट कार्ड और स्थानीय स्तर पर पुलिस- पब्लिक संवाद जैसे उपायों से पुलिस व्यवस्था को जवाबदेह और मानवीय बनाया जा सकता है। बहरहाल समसामयिक जरूरत यह की है कि पुलिस प्रशिक्षण, कार्य- संस्कृति, नेतृत्व और मूल्यांकन प्रक्रिया में आमजन की सोच और अपेक्षाएं दिखे।
जब तक आम जनता सिर्फ पीड़ित की भूमिका में रहेंगे और व्यवस्था में उनकी कोई हिस्सेदारी नहीं होगी तब तक सुधार अपूर्ण ही रहेगा। जाहिर है अब शासन और समाज को मिलकर एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहिए जहां सुरक्षा के नाम पर डर की जगह विश्वास हो। यहीं से हम एक समावेशी, न्यायपूर्ण और मजबूत लोकतंत्र की दिशा का रुख कर सकेंगे।
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