Bihar Election 2025: कभी भारत के सबसे अधिक राजनीतिक रूप से सक्रिय प्रदेशों में गिना जाने वाला बिहार, चुनावी हिंसा के मामले में भी बदनाम रहा है। यह वही राज्य है, जहां कभी ‘वोट डालना’ साहस की निशानी माना जाता था और ‘बूथ कैप्चरिंग’ राजनीतिक रणनीति का हिस्सा। गुरुवार को मोकामा में जन सुराज पार्टी के एक समर्थक की हत्या ने एक बार फिर उस दौर की याद दिला दी, जब बिहार में चुनाव और हिंसा एक-दूसरे के पर्याय बन चुके थे।
बूथ कैप्चरिंग से लेकर हत्याओं तक
बिहार में चुनावी हिंसा का इतिहास देश के लोकतांत्रिक ढांचे पर गहरा दाग है। 1960 और 70 के दशक में जहां छिटपुट घटनाएं होती थीं, वहीं 1980 के दशक तक आते-आते यह एक भयावह रूप ले चुकी थीं। राज्य में पहली बार बूथ कैप्चरिंग की घटना बेगूसराय में दर्ज की गई, जिसने देशभर की चुनावी प्रक्रिया को शर्मसार कर दिया। 1980 के दशक में बूथ लूट और अपहरण की घटनाएं इतनी आम हो गईं कि इसे “चुनावी परंपरा” मान लिया गया। सत्ता में रहने वाली पार्टियों पर बूथ कब्जाने और विरोधियों को डराने-धमकाने के आरोप लगते रहे।
राजनीतिक हत्याओं की लंबी सूची
बिहार में राजनीतिक हत्याओं का सिलसिला 1965 में शुरू हुआ, जब दक्षिण गया से कांग्रेस विधायक शक्ति कुमार की हत्या कर दी गई थी। 1972 में सीपीआई विधायक मंजूर हसन, 1978 में सीताराम मीर, 1984 में कांग्रेस नेता नगीना सिंह और 1990 में जनता दल विधायक अशोक सिंह की हत्या ने पूरे राज्य को हिला दिया। 1998 में बृज बिहारी प्रसाद और देवेंद्र दुबे जैसे नेताओं की हत्याओं ने इस काले अध्याय को और गहरा कर दिया। सीपीएम के विधायक अजीत सरकार की दिनदहाड़े हत्या उस दौर की अराजक राजनीति का प्रतीक बन गई।
हिंसा के आंकड़े बोलते हैं
1969 में बिहार में पहली बार व्यापक चुनावी हिंसा दर्ज हुई, जिसमें सात लोग मारे गए। 1977 के चुनाव में 194 घटनाएं हुईं और 26 मौतें हुईं।1985 के चुनाव में हिंसा की 1370 घटनाएं दर्ज हुईं। यह अब तक का सबसे हिंसक चुनाव था, जिसमें 69 लोगों की जान गई। 1990 में 87 और 1995 में 54 लोगों की मौत हुई। 2000 के चुनाव में भी 61 लोगों की जान गई। 2005 में राष्ट्रपति शासन के दौरान हिंसा जारी रही, लेकिन उसी साल के अक्टूबर चुनाव में नीतीश कुमार के नेतृत्व में जब एनडीए सरकार बनी, तब से हिंसा की घटनाओं में गिरावट आई।
2005 के बाद बदलाव की शुरुआत
2005 के बाद बिहार ने चुनावी हिंसा से राहत पाई। प्रशासनिक सख्ती, पुलिस सुधार ने इस प्रवृत्ति पर कुछ हद तक रोक लगाई। 2010 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ पांच लोगों की मौत हुई। यह पिछले दशकों की तुलना में बड़ा बदलाव था। लेकिन मोकामा की हालिया घटना यह बताती है कि भले ही बिहार बदला हो, उसकी राजनीति की जड़ें अब भी पुराने दौर से पूरी तरह नहीं कट पाई हैं।
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